भगवान गणेश यानी कि देवों के देव महादेव और माँ पार्वती की संतान। भगवान गणेश को भक्त विघ्नहर्ता कहते हैं। विघ्नहर्ता का अर्थ है, विघ्न यानी संकट को हर लेने वाले। ऐसी मान्यता है कि, भगवान गणेश के पूजन से उनके भक्तों के सारे संकट स्वयं दूर हो जाते हैं। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार हर महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को गणेश चतुर्थी मनाई जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसी मान्यता है कि, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को ही भगवान गणेश का जन्म हुआ था। इस दिन भगवान गणेश की पूजा अर्चना की जाती है ताकि उनकी कृपा दृष्टि हमारे ऊपर बनी रहे। वैसे तो भगवान गणेश के जन्म की अनेक कथाएं हैं। लेकिन सबसे प्रचलित कथा शिव पुराण की है।
क्या है शिव पुराण में भगवान गणेश के जन्म की कथा?
शिव पुराण के अनुसार एक बार माता पार्वती ने अपने शरीर का मैल हटाने के लिए हल्दी का उबटन लगाया था। बाद में जब माता पार्वती ने उस उबटन को हटाया तो उन्होंने उस उबटन से एक पुतला बनाया और फिर उसमें प्राण फूँक दिये। इस तरह भगवान गणेश का जन्म हुआ।
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इसके बाद माता पार्वती ने भगवान गणेश को द्वार की पहरेदारी करने के लिए भेज दिया और साथ में यह आदेश भी दिया कि, भगवान गणेश किसी को भी अंदर प्रवेश नहीं करने देंगे। बाद में जब भगवान महादेव आए तो माता के आदेशानुसार गणेश जी ने उन्हें भी अंदर प्रवेश करने से रोक दिया, जिसकी वजह से भगवान महादेव और गणेश जी के बीच युद्ध हुआ। नतीजा यह कि भगवान शिव ने इस युद्ध में गणेश जी का सिर उनके शरीर से अलग कर दिया। बाद में जब माता पार्वती ने अपने पुत्र का यह हाल देखा तो वो रोने लगीं। तब भगवान शिव ने गणेश जी के शरीर पर हाथी का सिर लगा कर, उन्हें वापस जीवित कर दिया था। लेकिन भगवान गणेश के जन्म को लेकर अक्सर एक सवाल भी किया जाता है। यह सवाल भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह से उत्पन्न हुआ है।
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क्या है सवाल?
दरअसल भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह में भगवान गणेश की पूजा-अर्चना के बाद ही विवाह की अन्य विधियाँ शुरू हुई थी। ऐसे में लोगों के मन में यह सवाल उभरता है कि, जब भगवान गणेश माता पार्वती और भगवान शिव के पुत्र हैं तो उनके विवाह के वक़्त वे दोनों भगवान गणेश की आराधना कैसे कर सकते हैं। जाहीर है कि, लोगों के लिए यह काफी आश्चर्य से भरी कथा है। लेकिन, इस सवाल का जवाब तुलसीदास जी के एक दोहे में मौजूद है। दोहा है:
मुनि अनुशासन गनपति हि पूजेहु शंभू भवानी।
कोउ सुनि संशय करै जनि सुर अनादि जिय जानी॥
दोहे का अर्थ:
इस दोहे का अर्थ है कि, भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के समय भगवान गणेश की पूजा-अर्चना ब्रह्मवेत्ता मुनियों के निर्देश पर की गयी थी। कोई भी व्यक्ति इस बात पर बिलकुल भी संशय नहीं करे क्योंकि देवता अनादि होते हैं।
मतलब यह कि, भगवान गणेश किसी के भी पुत्र नहीं हैं। भगवान गणेश तो अनादि और अनंत हैं। यानी भगवान गणेश की कोई शुरुआत नहीं है और न ही उनका कोई अंत है। वे देवता हैं। वेदों में भी भगवान गणेश का जिक्र है। वेदों में गणेश जी का नाम ‘गणपति’ या ‘ब्रह्मणस्पति’ के तौर पर मिलता है।
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कैसे करें विनायक चतुर्थी को भगवान गणेश का पूजन?
इस दिन भक्तों को सुबह-सुबह स्नान करके भगवान गणेश की प्रतिमा के सामने ध्यान करना चाहिए। अगर घर में भगवान गणेश की कोई मूर्ति या प्रतिमा नहीं है तो आप किसी मंदिर जाकर भी यह काम कर सकते हैं। इस दिन भक्त व्रत रखते हैं और भगवान गणेश को दूर्वा और मोदक का भोग लगाते हैं।
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विनायक चतुर्थी की तिथि, समय और पूजा का मुहूर्त :
तिथि : 16 मार्च रात्रि में 08 बजकर 59 मिनट से 17 मार्च को रात के 11 बजकर 28 मिनट तक
पूजा मुहूर्त : सुबह 11 बजकर 17 मिनट से लेकर दोपहर 01 बजकर 42 मिनट तक
हम उम्मीद करते हैं कि यह लेख आपके लिए मददगार साबित हुआ होगा। विनायक चतुर्थी की आप सभी को अग्रिम शुभकामनाएं।