जानिए वो कथा जब पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार लेना पड़ा

सनातन धर्म में एकादशी का विशेष महत्व है। यह दिन सनातन परंपरा के अनुसार भगवान विष्णु को समर्पित होता है। यही वजह है कि बहुत से लोग एकादशी को हरि वासर या फिर हरि का दिन कहते हैं। हिन्दू कैलेंडर के हर महीने में दो एकादशी पड़ती है। अब इस साल 7 मई को वरुथिनी एकादशी मनाई जाने वाली है। वरुथिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा होती है। माना जाता है कि इस दिन भगवान वराह की कथा सुनने या पढ़ने से जातकों को पुण्य फल की प्राप्ति होती है। भगवान विष्णु के वराह अवतार में जन्म लेने के पीछे एक बेहद ही रोचक कथा मौजूद है। ऐसे में आज हम आपको इस लेख में भगवान वराह के जन्म की कथा बताएँगे।

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जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया

मान्यता है कि बैकुंठ लोक के दो द्वारपालों यानी कि जय और विजय को सप्तर्षि ने श्राप दे दिया था। श्राप ये कि अगले तीन जन्म तक वे दोनों पृथ्वी पर दैत्य रूप में जन्म लेंगे। इसी श्राप की वजह से दोनों द्वारपाल पहले जन्म में कश्यप ऋषि और उनकी अर्धांगिनी दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लिया था। जिनमें से एक का नाम हिरण्याक्ष जबकि दूसरे का हिरण्यकश्यप था।

हिरण्याक्ष शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है: हिरण्य और अक्ष। ‘हिरण्य’ का अर्थ है स्वर्ण यानी कि सोना जबकि ‘अक्ष’ आँख को कहा जाता है। इस प्रकार हिरण्याक्ष का अर्थ हुआ दूसरों के धन-सम्पदा पर आँख यानी कि नजर रखने वाला। 

दैत्य हिरण्याक्ष ने यज्ञ और तपस्या कर अपने बल को बढ़ाया और धरती तथा देवताओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। हद तो तब हो गयी जब उसने पृथ्वी को ही समुद्र में छिपा दिया। 

तब लेना पड़ा भगवान वराह को जन्म

हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को छिपा देने के बाद उसके अत्याचारों से तंग आकर सभी देवता परमपिता भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे सृष्टि को हिरण्याक्ष के अत्याचारों से मुक्त कराने की याचना की। फलस्वरूप भगवान ब्रह्मा के नाक से वराह नारायण का जन्म हुआ। भगवान विष्णु को इस अवतार में देख सभी देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करते हुए उनसे मदद की याचना की। भगवान वराह ने अपने थूथनों के उपयोग से उस स्थान का पता लगा लिया जहां हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को छुपाया था। 

उधर हिरण्याक्ष पाताल लोक पहुंच चुका था और वहाँ उसने वरुण देवता को युद्ध के लिए ललकारा। वरुण देवता ने उसकी ललकार सुन उससे कहा कि वे उस बलशाली दैत्य से लड़ने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे में उन्होंने हिरण्याक्ष को सुझाव दिया कि वह जाकर भगवान विष्णु से युद्ध लड़े। हिरण्याक्ष भगवान विष्णु को ढूँढने निकल पड़ा। रास्ते में देवर्षि नारद मिले तो उन्होंने उसे बताया कि भगवान विष्णु वराह अवतार ले चुके हैं और इस समय पृथ्वी को समुद्र से बाहर निकाल रहे हैं।

यह सुन हिरण्याक्ष उसी जगह पर पहुंचा जहां उसने पृथ्वी को छिपा कर रखा था। वहाँ भगवान वराह नारायण पहले से मौजूद थे और अपने दांतों से पृथ्वी को उठा कर ले जा रहे थे। यह देख हिरण्याक्ष ने भगवान वराह को युद्ध के लिए ललकारा। नतीजा ये कि दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में भगवान वराह ने दैत्य हिरण्याक्ष के पेट को अपने दांत और जबड़े से फाड़ कर उसका वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने पृथ्वी को उसके यथास्थान पर स्थापित किया और अंतर्धान हो गए।

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भगवान वराह

मान्यता है कि भगवान विष्णु ने 24 अवतार लिए हैं। इन 24 अवतारों में वराह अवतार को भगवान विष्णु का तीसरा अवतार माना जाता है। इससे पहले दो और अवतार क्रमशः मत्स्य और कच्छप थे। भगवान विष्णु के वराह अवतार में जन्म लेने के साथ ही पहली दफा भगवान के चरण मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर पड़े। आपको बता दें कि भगवान विष्णु के वराह अवतार का सर शूकर का था जबकि देह मनुष्य का था। यही वजह है कि भगवान विष्णु के इस अवतार का सनातन धर्म में बड़ा महत्व है।

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