वाल्मीकि जयंती विशेष: जानें आखिर किस घटना ने एक डाकू को बना दिया विद्वान वाल्मीकि?

महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस हर वर्ष के आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन देशभर में मनाया जाता है। एक महान संत एवं विद्वान कवि वाल्मीकि का जन्मउत्सव सभी देशवासी वाल्मीकि जयंती के रूप में मनाते हैं। 

वाल्मीकि जयंती एक पर्व की भाँती बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती हैं। इस दौरान चारों ओर वाल्मीकि भगवान का गुणगान होता है। ऐसे में अगर आपके मन में उनके जीवन को लेकर कोई भी सवाल उठता है तो आइये जानते है कि आखिर कौन थे महर्षि वाल्मीकि? 

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महर्षि वाल्मीकि की जीवनगाथा 

शास्त्रों की माने तो महर्षि वाल्मीकि का जन्म रामायण काल में नागा प्रजाति में हुआ था। उनकी गिनती यूँ तो विद्वान ज्ञानियों में होती हैं लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि ऋषि मुनि बनने से पूर्व वाल्मीकि एक कुख्यात डाकू थे। जी हाँ पौराणिक कथाओं के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का नाम पहले रत्नाकर था। इस बात का उल्लेख आपको मनुस्मृति में भी मिलता है। उसके अनुसार वाल्मीकि प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। उनके बारे में ये भी कहा जाता है कि बचपन में ही उन्हें एक निःसंतान भील प्रजाति की महिला ने चुरा लिया था। जिन्होंने उनका नाम रत्नाकर रखा और बड़े ही प्रेम-दुलार से उनका पालन-पोषण किया।

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वो भीलनी अपना जीवनयापन दस्यु कर्म यानी डकैती, लूट आदि करके करती थी। ऐसे में उसने बुरे कर्म और लूट-पाट से ही रत्नाकर का पालन-पोषण किया। जिसका बुरा प्रभाव रत्नाकर पर भी पड़ा और उन्होंने भी उसी राह पर चलते हुए बड़े होकर अपने भरण-पोषण के लिए वही रास्ता चुना। वाल्मीकि के युवा अवस्था में आने पर उसका विवाह भी उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। रत्नाकर को इस विवाह से कई संतानों की प्राप्ति हुई। अब अपने परिवार का पलान करने के लिए उन्होंने पाप कर्म को ही अपना जीवन मानकर और भी अधिक घोर पाप करना शुरू कर दिया। 

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एक बार इसी कड़ी में उन्हें वन से गुजरते हुए एक साधुओं की मंडली नज़र आई, जिसे देखते ही उनके मन में पाप जगा और उन्होंने उन साधुओं को हत्या की धमकी दे डाली। साधु के पूछने पर रत्नाकर ने ये बताया कि वे यह सब अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए कर रहा है। तब साधु ने अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए उन्हें ज्ञान दिया और कहा कि तुम जो भी पाप कर्म कर रहे हो, उसका दंड किसी ओर को नहीं बल्कि केवल तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। इसके बाद साधु ने कहा कि तुम जाकर अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि क्या वे तुम्हारे इस पाप के भागीदार बनेंगे, जिनके  लिए तुम ये सब कर रहे हो? 

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माना जाता है कि ज्ञान देने वाला साधू और कोई नहीं बल्कि स्वयं नारद मुनि थे, जिन्होंने रत्नाकर को ज्ञान का पाठ पढ़ते हुए उसकी आँखें खोल दी। इस प्रकार रत्नाकर के दिलों-दिमाग पर नारद मुनि की बातों और उनके  ज्ञान का काफी प्रभाव पड़ा। शुरुआत में तो उन्हें नारद मुनि की बात पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन वो खुद को इस बारे में सोचने से नहीं रोक पाए और वह सोच में डूब गए। जिसके बाद रत्नाकर ने नारद मुनि से कहा कि अगर वह उनके द्वारा कही गई बात को सुनिश्चित करने अपने परिवार से पूछने जाएगा तो सब साधु लोग वहां से भाग जाएंगे। तो रत्नाकर की इस शंका को दूर करने के लिए नारद मुनि ने कहा कि, “तुम हमें यहीं पेड़ से बांध जाओ। जिससे हम कही  पाएंगे और तुम्हें भी सवालों के जवाब मिल जाएंगे। इस प्रकार रत्नाकर नारद मुनि को सभी साधुओं संग जगल में ही पेड़ से बाँधकर अपने परिवार से यह पूछने गया कि वह उसके पाप में भागीदार होंगे या नहीं?

परिवार से सवाल पूछने पर रत्नाकर के बच्चों और पत्नी ने उन्हें खूब फटकार लगाई। इस  बारे में रत्नाकर की पत्नी ने कहा कि, “वह परिवार का पालन-पोषण चाहे जैसे भी करें। इससे उन्हें कोई मतलब नहीं।” ऐसे में रत्नाकर के पापों में भागीदार होने पर जब उनकी पत्नी और बच्चों ने मना कर दिया तब जाकर उनकी आंखे खुली। इसके बाद मानो रत्नाकर को अपने द्वारा किए गए सभी पाप कर्म पर बहुत पछतावा होने लगा और उन्होंने तुरंत ही साधु मंडली को न केवल मुक्त कर दिया, बल्कि उनसे क्षमा भी मांगी। माफ़ी मांगने के बाद जब वाल्मीकि वापस लौटने लगे तब साधु ने उन्हें अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए तमसा नदी के तट पर ‘राम-राम’ नाम जपने की सलाह दी। 

माना जाता है कि अपनी इसी तपस्या के फलस्वरूप ही वे रत्नाकर से वाल्मीकि बने और फिर इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके बाद ही उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने रामायण की महान रचना की, इसलिए उन्हें आदि कवि के नाम से पुकारा गया और वह इसी नाम से आगे चलकर वाल्मीकि ‘रामायण के रचयिता’ के नाम से अमर हो गए।

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