27 अगस्त से पर्युषण पर्व प्रारंभ, जानें जैन धर्म में क्या है इस पर्व का महत्व

पर्युषण पर्व जैन धर्म का सबसे प्रमुख त्यौहार है। यह पर्व इसी महीने की 27 तारीख़ से प्रारंभ हो रहा है, जो अगले महीने 3 सितंबर को समाप्त होगा। जैन धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय हैं – दिगंबर और श्वेतांबर। ये दोनों संप्रदाय इस पर्व को बड़ी श्रद्धा के साथ लेकिन अलग-अलग तरीके से मनाते हैं। एक ओर जहाँ श्वेतांबर इस पर्व को आठ दिनों तक मनाते हैं तो वहीं दूसरी ओर, दिगंबर संप्रदाय के लोग इसे दस दिनों तक मनाते हैं। जैन धर्म में यह त्यौहार साधना, तप, त्याग, योग आदि के लिए किया जाता है।

पर्युषण पर्व क्या है ?

पर्युषण शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है। इसमें पहला शब्द है पर्यु जिसका भाव है चारो ओर तथा दूसरा शब्द उषण है, जिसका अर्थ है अर्थ है धर्म की आराधना। यह पर्व भाद्रपद मास में मनाया जाता है। यह पर्व महावीर स्वामी के मूल सिद्धांत अहिंसा परमो धर्म, जिओ और जीने दो की राह पर चलना सिखाता है तथा मोक्ष प्राप्ति के द्वार खोलता है।

पर्युषण पर्व का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धिकरण से है। यह पर्व व्यक्ति के अंदर अनुशासन की भावना को जागृत करता है। उदाहरण के लिए पर्युषण पर्व के दौरान मंदिर, उपाश्रय, स्थानक तथा समवशरण परिसर में अधिकाधिक समय तक रहना जरूरी माना जाता है। इस दौरान कई जातक निर्जला व्रत भी करते हैं। यह पर्व दसलक्षण के सिद्धांत को बताता है। 

ये हैं दसलक्षण सिद्धांत

  1. क्षमा- सहनशीलता। क्रोध को पैदा न होने देना। क्रोध पैदा हो ही जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना।
  2. मार्दव- चित्त में मृदुता व व्यवहार में नम्रता होना।
  3. आर्दव- भाव की शुद्धता। जो सोचना सो कहना। जो कहना सो करना।
  4. सत्य- यथार्थ बोलना। हितकारी बोलना। थोड़ा बोलना।
  5. शौच- मन में किसी भी तरह का लोभ न रखना। आसक्ति न रखना। शरीर की भी नहीं।
  6. संयम- मन, वचन और शरीर को काबू में रखना।
  7. तप- मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।
  8. त्याग- पात्र को ज्ञान, अभय, आहार, औषधि आदि सद्वस्तु देना।
  9. अकिंचनता- किसी भी चीज में ममता न रखना। अपरिग्रह स्वीकार करना।
  10. ब्रह्मचर्य- सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने को पवित्र रखना।

पर्युषण पर्व में साधुओं को करने होते हैं ये पाँच कर्तव्य

जैन धर्म के इस पर्व में साधुओं के लिए पाँच कर्तव्य बताएँ गए हैं। जिनका जैन धर्म में विशेष महत्व है। इनमें संवत्सरी, प्रतिक्रमण, केशलोचन, तपश्चर्या, आलोचना एवं क्षमा-याचना। वहीं गृहस्थों के लिए भी शास्त्रों का श्रवण, तप, अभयदान, सुपात्र दान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा-याचना आदि कर्तव्य बताए गए हैं।

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