जानें नवरात्रि के छठवें दिन मां कात्यायनी के रूप का वर्णन और महत्व

नवरात्रि के छठवे दिन होगी देवी दुर्गा के कात्यायनी रूप की पूजा। जानें मां के इस रूप का वर्णन, महत्व और साथ ही पढ़ें दुर्गा पूजा पर क्या है बिल्व निमंत्रण की परंपरा।

इस वर्ष 2019 में 4 अक्टूबर, शुक्रवार को शरद नवरात्रि षष्ठी तिथि है। नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा किये जाने का विधान है। मां कात्यायनी को देवी दुर्गा का छठा रूप माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी कात्यायनी को ऋषि की पुत्री होने के कारण कात्यायनी नाम मिला था। देवी दुर्गा के इस रूप को लेकर कहा जाता है कि जो भी भक्त नवरात्रि के छठे दिन माँ की सच्चे मन से पूरे विधि-विधान के साथ आराधना करता है तो मां स्वयं अपने भक्त के सभी रोग-दोष दूर कर उसे सुख-समृद्धि प्रदान करती हैं।  

विस्तार से पढ़ें: मां कात्यायनी की महिमा और पौराणिक कथा ! 

देवी दुर्गा के मां कात्यायनी रूप का ज्योतिष महत्व

मां कात्यायनी का धार्मिक और ज्योतिष दोनों ही महत्व बेहद महत्वपूर्ण हैं। मां के ज्योतिषीय महत्व को समझें तो उसके अनुसार माना जाता है कि मां कात्यायनी गुरु बृहस्पति ग्रह का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए जो भी जातक नवरात्रि के छठे दिन इनकी सच्ची भावना से पूजा-अर्चना करता है, इसके प्रभाव से उस जातक की कुंडली में मौजूद हर प्रकार का बृहस्पति से संबंधित दोष तो दूर होता ही है साथ ही मां के आशीर्वाद से उस व्यक्ति को जीवन में शुभ फल की प्राप्ति भी होती है।

देवी कात्यायनी का स्वरूप

  • धार्मिक मान्यताओं अनुसार माँ कात्यायनी शेर की सवारी करती हैं। 
  • मां की चार भुजाएँ होती हैं। 
  • जिनमें बाएँ दो हाथों में मां कमल और तलवार धारण किये रखती हैं, जबकि दाहिने दो हाथों में मां वरद एवं अभय मुद्रा में होती हैं। 
  • माँ कात्यायनी सदैव लाल वस्त्र में सुशोभित होती हैं, इसलिए इस दिन मां की पूजा के दौरान लाल वस्त्रों का प्रयोग करना बेहद शुभ माना जाता है। 

शरद नवरात्रि के छठा दिन की पूजा विधि

माना जाता है कि मां कात्यायनी का पूजन करने से आत्मिक शांति और आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है। इसके लिए जातक को माता कात्यायनी की पंचोपचार विधि से पूजा करनी अनिवार्य होती है, तभी उसे अपने प्रयासों में सफलता मिल सकती है। नवरात्रि के छठे दिन की पूजा का विधान कुछ इस प्रकार है…

  1. सर्वप्रथम मां कात्यायनी की पूजा से पहले कलश देवता अर्थात भगवान गणेश का विधिवत तरीके से पूजन करें।
  2. भगवान गणेश को फूल, अक्षत, रोली, चंदन, अर्पित कर उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान कराए व देवी को अर्पित किये जाने वाले प्रसाद को पहले भगवान गणेश को भी भोग लगाएँ। 
  3. प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट करें। 
  4. फिर कलेश देवता का पूजन करने के बाद नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा भी करें।
  5. इन सबकी पूजा-अर्चना किये जाने के पश्चात ही मां कात्यायनी का पूजन शुरू करें।
  6. इसके लिए सबसे पहले अपने हाथ में एक फूल लेकर मॉं कात्यायनी का ध्यान करें।
  7. इसके बाद मां कात्यायनी का पंचोपचार पूजन कर, उन्हें लाल फूल, अक्षत, कुमकुम और सिंदूर अर्पित करें।
  8. इसके बाद उनके समक्ष घी अथवा कपूर जलाकर मां कात्यायनी की आरती करें।
  9. अब अंत में मां के मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उनसे अपनी भूल-चूक के लिए क्षमा प्रार्थना करें।

नवरात्रि के छठवें दिन से जुड़े मंत्र

ॐ देवी कात्यायन्यै नमः॥

प्रार्थना मंत्र

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।

कात्यायनी शुभं दद्याद् देवी दानवघातिनी॥

समस्त नवग्रहों की शांति के लिए पढ़ें: विशेष ज्योतिषीय उपाय

दुर्गा पूजा उत्सव के षष्ठी पूजन का महत्व

हर वर्ष होने वाले दुर्गा पूजा की विधिवत शुरुआत शरद नवरात्रि के छठे दिन यानी षष्ठी तिथि से ही प्रारंभ होती है। ये पर्व विशेष तौर से बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी तिथि के दिन देवी दुर्गा धरती पर अवतरित हुई थी। ऐसे में इस महत्वता को देखते हुए ही नवरात्रि में षष्ठी तिथि के दिन बिल्व निमंत्रण पूजन, कल्पारंभ, अकाल बोधन, आमंत्रण और अधिवास की परंपरा का विधान हैं। 

किसे कहते हैं दुर्गा पूजा में काल प्रारंभ ?  

दुर्गा पूजा में काल प्रारंभ की क्रिया का अपना एक विशेष महत्व होता है, ये क्रिया विशेष तौर से प्रात: काल ही की जाती है। जिस दौरान घट या कलश में जल भरकर पूरे विधि-विधान अनुसार देवी दुर्गा को समर्पित किया जाता है और फिर उस कलश या घट को पूजा स्थल में दुर्गा देवी के समक्ष स्थापित किये जाने का विधान है। इस तिथि को दुर्गा पूजा में घट स्थापना दिवस कहते हैं, जिसके बाद ही महासप्तमी, महाअष्टमी और महानवमी तीनों दिन भक्त मां दुर्गा की विधिवत पूजा-आराधना का संकल्प लेते हैं।  

दुर्गा पूजा में बोधन का महत्व 

दुर्गा पूजा में बोधन जिसे कई लोग अकाल बोधन के नाम से भी जानते हैं, उसका विशेष विधान बताया गया है। बोधन से तात्पर्य होता है नींद से जगाना और ये क्रिया अपने नाम की तरह ही शरद नवरात्रि के छठे दिन शाम के समय संपन्न की जाती है। 

इस दौरान भक्त मां दुर्गा को विधि-विधान अनुसार नींद से जगाते हैं। दरअसल हिन्दू धर्म में ये माना गया है कि सभी देवी-देवता दक्षिणायान काल में निंद्रा अवस्था में होते हैं और चूंकि दुर्गा पूजा का ये महाउत्सव हर साल के मध्य में दक्षिणायान काल के समय आता है, ऐसे में देवी दुर्गा को बोधन परंपरा के द्वारा मां के भक्त उन्हें नींद से जगाते हैं। 

मान्यताओं अनुसार ये भी कहा जाता है कि देवी दुर्गा को सबसे पहले नींद से स्वयं भगवान श्री राम ने अपनी आराधना से राक्षस राज रावण का वध करने हेतु जगाया था। ऐसे में चूंकि भगवान राम ने देवी दुर्गा को असमय नींद से जगाया था, इसलिए मां को जगाने की इस क्रिया को अकाल बोधन कहा जाने लगा। 

इस क्रिया के दौरान मां के भक्त एक कलश या अन्य पात्र में शरद नवरात्रि के छठे दिन जल भरकर उसे बिल्व वृक्ष के नीचे रख देते हैं। हिन्दू धर्म में जहाँ कलश पूजा को भगवान गणेश के पूजन से जोड़ा जाता है, तो वहीं बिल्व पत्र का पूजन भगवान शिव के पूजन के स्वरूप में किया जाता है। ऐसे में बोधन की क्रिया के दौरान बिल्व वृक्ष के नीचे कलश रखकर भक्त मां दुर्गा को निंद्रा से जगाने हेतु मां से प्रार्थना की गुहार लगाते हैं।  

बोधन की इस क्रिया को पूरा करने के बाद ही अधिवास और आमंत्रण की परंपरा निभाए जाने का विधान है। इस दौरान मां दुर्गा की प्रार्थना करते हुए उनकी वंदना की जाती है। इसके पश्चात बिल्व निमंत्रण के बाद जब प्रतीकात्मक तौर पर देवी दुर्गा की स्थापना पूजा स्थल पर कर दी जाती है, तो इसे देवी दुर्गा आह्वान कहा जाता है जिसे कई जगह पर अधिवास के नाम से भी जाना जाता है। 

एस्ट्रोसेज की ओर से सभी पाठकों को शरद नवरात्रि की शुभकामनाएं! हम आशा करते हैं कि देवी दुर्गा की कृपा से आपके जीवन में हमेशा खुशहाली आए।

Dharma

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