हिन्दू धर्म में किये जाने वाले व्रत-त्यौहार, पूजा-पाठ हमारे जीवन में शांति प्रदान करते हैं। ग्रहों की चाल, शुभ दशा भी काफी हद तक हमारे जीवन को प्रभावित करती है। हालाँकि मौजूदा परिस्थितियों के मद्देनजर अगर आपके दिमाग में अपने भविष्य से जुड़ा कोई भी सवाल है, जिसके चलते आप परेशान रहने लगे हैं, तो उसका जवाब जानने के लिए अभी हमारे विशेषज्ञ ज्योतिषियों से प्रश्न पूछें।
हिंदू धर्म में अनेकों व्रत और त्यौहार मनाए जाते हैं। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार इन्ही में से एक व्रत है जिसे आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। इस व्रत का नाम है कोकिला व्रत। इस वर्ष कोकिला व्रत 4 जुलाई, शनिवार को पड़ रहा है।
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कोकिला व्रत शुभ मुहूर्त : 19 बजकर 22 मिनट से 21 बजकर 24 मिनट तक रहेगा।
कोकिला व्रत अवधि : 2 घंटा 1 मिनट
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ : 11:33, 04 जुलाई , 2020
पूर्णिमा तिथि अंत : 10:13, 05 जुलाई , 2020
यह व्रत सुहागिन महिलाएं और कुंवारी कन्याएं दोनों रखती हैं। सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए इस व्रत को रखती हैं तो वहीं कुंवारी कन्याएं मनचाहा वर पाने के लिए इस व्रत को रखती हैं। इसके अलावा अन्य जो भी लोग इस व्रत को रखते हैं उन्हें भी मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
सच्चे मन से अगर कोई भी व्रत या पूजा की जाये तो कुंडली में मौजूद दोषों से छुटकारा, या उनके प्रभावों को काफी कम किया जा सकता है, लेकिन अगर आपकी कुंडली में काल सर्प दोष, मंगल दोष, साढ़े साती एवं अन्य कोई दोष हैं, तो इनके सटीक और सरल कारगर उपाय जानने के लिए आप बृहत् कुंडली की मदद ले सकते हैं।
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कोकिला व्रत का महत्व
- इस व्रत के बारे में ऐसी मान्यता है कि जो कोई भी इंसान इस व्रत को रखता है उसकी सभी इच्छाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।
- कुंवारी कन्याएं अगर इस व्रत को रखती है तो उन्हें सुयोग और मनचाहा पति मिलता है।
- वहीं विवाहित महिलाएं इस व्रत को अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती है।
- सिर्फ इतना ही नहीं इस व्रत के बारे में ऐसी भी मान्यता है कि इस व्रत को जो भी रखता है उसकी सुंदरता भी बढ़ती है, ऐसा इसलिए माना गया है क्योंकि इस व्रत में इंसान को विशेष जड़ी बूटियों से नहाना होता है।
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कोकिला व्रत की कथा
शास्त्रों के अनुसार कोकिला व्रत की शुरुआत माता पार्वती ने की थी। माता पार्वती ने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए इस व्रत को रखा था। मान्यता है कि माता पार्वती अपने जन्म से पहले तकरीबन हजारों सालों तक कोयल बनकर नंदनवन में भटकी थीं। इस श्राप से मुक्त होने के बाद माँ पार्वती ने कोयल की पूजा की थी। जिससे भगवान शिव प्रसन्न हुए और उनकी मनोकामना पूर्ण की। जिसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी के रूप में माता पार्वती को स्वीकार किया था।
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कोकिला व्रत पूजन विधि
- इस दिन जिस किसी भी इंसान को व्रत रखना हो उसे ब्रह्मा मुहूर्त में उठकर अपने दैनिक कार्यों से को पूरा करके स्नान करना चाहिए।
- उसके बाद मंदिर में भगवान शिव, माता पार्वती की प्रतिमा को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
- इस दिन भजन कीर्तन का भी विशेष महत्व बताया गया है।
- कोकिला व्रत पूजन में जल, पुष्प, बेलपत्र, दूर्वा, धूप, दीप इत्यादि अवश्य शामिल करें।
- इस दिन निराहार व्रत रखा जाता है। इसके बाद सूर्यास्त के बाद पूजा अर्चना करके फलाहार ग्रहण किया जाता है। कोकिला व्रत आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर श्रवण पूर्णिमा को समाप्त होता है।
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कोकिला व्रत से जुड़ी पौराणिक कथा
इस व्रत की एक खासियत यह भी है कि यह व्रत इस बात को दर्शाता है कि, श्राप सिर्फ इंसानों को ही नहीं बल्कि भगवानों को भी मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार बताया जाता है कि राजा दक्ष की पुत्री सती ने अपने पिता की अनुमति के खिलाफ जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया था। जिसकी वजह से राजा दक्ष अपनी पुत्री से नाराज हो जाते हैं।
राजा दक्ष को भगवान शिव के रहने का ढंग पसंद नहीं था। जिसकी वजह से वह अपनी बेटी का विवाह शिवजी से नहीं कराना चाहते थे, लेकिन सती जी ने अपनी जिद के कारण शिवजी से विवाह कर लिया। जिसके कारण राजा दक्ष ने अपनी बेटी से अपना रिश्ता तोड़ लिया। इसके बाद एक बार राजा दक्ष ने अपने राजमहल में एक महायज्ञ का आयोजन किया। इसमें राजा दक्ष ने सभी देवताओं के परिवार को आमंत्रित किया। इस यज्ञ में उन्होंने अपनी पुत्रियों को भी बुलाया लेकिन माता सती और शिव जी को नहीं बुलाया।
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लेकिन जैसे ही माता सती को इस यज्ञ के बारे में पता चला वह अपने पिता के घर पहुंच गई। लेकिन यहां पर उन्होंने अपने पति भगवान शिव का अपमान देखा तो माता सती से रहा नहीं गया और वह महायज्ञ के कुंड में कूद गयीं। जब भगवान शिव को इस बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने यज्ञ का विध्वंस करने के लिए वीरभद्र की उत्पत्ति की और उसे आज्ञा दी कि इस यज्ञ का विध्वंस कर दिया जाए। इसके बाद भगवान शिव ने राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट तो कर दिया लेकिन हठ करके प्रजपति के यज्ञ में शामिल होने के कारण उन्होंने माता सती को श्राप दिया कि वह दस हजार सालों तक कोयल बनकर नंदन वन में रहे।
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