महाराजा अग्रसेन जयंती विशेष : जानें कौन थे महाराजा अग्रसेन और क्यों मनाते हैं उनकी जयंती!

भारत में न जाने कितने ऐसे महापुरुषों का जन्म हुआ, जिन्होंने समाज कल्याण के हित में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे ही एक व्यक्ति थे महाराजा अग्रसेन, जिनकी जयंती 17 अक्टूबर, शनिवार को मनाई जाएगी। क्षत्रिय कुल में जन्मे महाराज अग्रसेन को वैश्य अर्थात अग्रवाल समाज का जनक कहा जाता है। ये राम राज्य के समर्थक, महादानी और समाज-वाद का कार्य करने वाले राजा थे, इसीलिए लोग हर साल महाराजा अग्रसेन की जयंती वाले दिन इन्हें याद कर पूजा-पाठ करते हैं और इनके बताए आदर्शों पर चलने का संकल्प लेते हैं। लेकिन आखिर क्यों और किसके कहने पर उन्होंने अग्रवाल समाज की स्थापना की? अगर आपको इस बात कि जानकारी नहीं है, तो चलिए उनकी जयंती वाले दिन आपको उनके जीवन से जुड़ी ऐसी ही कुछ बातें बताते हैं, जिनसे आप अभी तक अनजान होंगे- 

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कौन थे महाराजा अग्रसेन?

महाराजा अग्रसेन का जन्म आज से लगभग 5143 वर्ष पहले बल्लभ गढ़ और आगरा के सूर्यवंशी महाराजा वल्लभ सेन के घर हुआ था। ये राजा वल्लभ के सबसे बड़े पुत्र थे और  शूरसेन के बड़े भाई भी थे। कहा जाता है कि, वह समय द्वापरयुग का अंत और कलयुग के प्रारम्भ का समय था। महाराजा अग्रसेन अग्रोदय नामक गणराज्य के महाराजा थे, जिसकी राजधानी अग्रोहा थी। वे एक इतने उदार दिल के राजा थे, कि उनके राज में कोई भी दुखी या लाचार नहीं था। 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इनका जन्म द्वापरयुग के अंतिम चरण यानि राम राज्य के समय में होने के कारण इनके सिद्धांत भी राम राज्य के समय जैसे ही थे। उस समय राजा प्रजा के हित में कार्य करता था और राज्य का सेवक होता था। महाराजा अग्रसेन की नगरी का नाम प्रताप नगर था। बाद में चलकर इन्होंने अग्रोहा नाम की एक नगरी बसाई। अग्रसेन को पशुओं व जानवरों से भी काफी लगाव था, जिस कारण उन्होंने यज्ञों में पशु की बलि को बंद करवाने पर ज़ोर दिया। मान्यता है कि इन्होंने महाभारत की लड़ाई में पांडवों के पक्ष में युद्ध किया था। 

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कब और कैसे मनाई जाती है अग्रसेन जयंती?

महाराजा अग्रसेन का जन्म द्वापर युग के अंत व कलयुग के प्रारंभ में अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था, इसीलिए हर साल आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन अग्रसेन जयंती मनाई जाती हैं। आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा नवरात्रि का प्रथम दिन भी होता है, इसलिए इस दिन की शुभता और भी बढ़ जाती है। इस साल 17 अक्टूबर, शनिवार के दिन यह जयंती मनाई जाएगी। अग्रसेन जयंती के पंद्रह दिन पहले से ही समारोह शुरू हो जाता हैं। 

महाराजा अग्रसेन वैश्य समाज, जिसे अग्रवाल के नाम से जाना जाता है उसके संस्थापक  थे। वैश्य यानि अग्रवाल समाज के अंतर्गत जैन, महेश्वरी, खंडेलवाल आदि भी आते हैं, इसीलिए ये सभी एकत्रित होकर इस जयंती को धूमधाम से मनाते हैं और इस दिन लोग विधि-विधान से महाराजा अग्रसेन की पूजा करते हैं। कुछ जगहों पर इस दिन भव्य आयोजन भी किए जाते हैं और महारैली निकाली जाती हैं। विभिन्न प्रकार के नाट्य-नाटिका और प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है और पूरा समाज साथ मिलकर इस उत्सव का आनंद लेता है। 

माँ लक्ष्मी के कहने पर की अग्रवाल समाज की स्थापना 

महाराजा अग्रसेन एक बहुत ही उदार राजा थे, जो हर समय अपनी प्रजा के हित के बारे में सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने अपने राज्य के लोगों की खुशहाली के लिए काशी नगर जाकर  भगवान शिव की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से शिव जी प्रसन्न हुए और राज्य की खुशहाली हेतु उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने की सलाह दी। महाराजा अग्रसेन द्वारा परोपकार हेतु की गई तपस्या से खुश होकर माँ लक्ष्मी ने उन्हें दर्शन दिए और अपना एक नया राज्य बनाने को कहा। माता लक्ष्मी ने महाराज अग्रसेन को क्षात्र धर्म का पालन कर अपने राज्य व प्रजा का पालन-पोषण और रक्षा करने की सलाह दी और उनके राज्य को हमेशा धन-धान्य से परिपूर्ण रहने का आशीर्वाद भी दिया। देवी लक्ष्मी जी के कहेनुसार उन्होंने अग्रवाल समाज की स्थापना की और इस राज्य को उत्तरी भाग में बसाया, जिसके चलते इसका नाम अग्रोहा पड़ा था। 

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अग्रवाल समाज के ये हैं 18 गोत्र 

राजा अग्रसेन ने माता लक्ष्मी के आदेश अनुसार वैश्य समाज की स्थापना कर, इस राज्य को उत्तरी भाग में बसाया, जिसके चलते इसका नाम अग्रोहा पड़ा गया। इस राज्य को  व्यवस्थित करने और सही तरीके से चलाने के लिए अग्रसेन ने इसे 18 भागों में विभक्त किया और महर्षि गर्ग के परामर्श पर 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ कराया। यज्ञों में बैठे इन 18 गणाधिपतियों जो कि अग्रसेन के ही 18 पुत्र थे, उनके नाम पर ही अग्रवाल समाज के 18 गोत्रो की स्थापना हुई। इन 18 गोत्र के नाम हैं- बंसल, बिंदल, भंदल, धारण, गर्ग, गोयल, गोयन, जिंदल, कंसल, कुच्छल, मधुकुल, मंगल, मित्तल, नागल, सिंघल, तायल और तिंगल!

पशु बलि प्रथा को किया था खत्म

महाराजा अग्रसेन को जीव-जंतुओं आदि से बेहद प्रेम था। लेकिन उनके समय में यज्ञों में जीवित पशुओं की बलि देने की प्रथा चलती थी। एक बार गोत्र की स्थापना के लिए उनके राज्य में 18 यज्ञ शुरू हुए। प्रथा के अनुसार हर एक यज्ञ में जानवर की बलि दी जाती थी। 18 में से 17 यज्ञ पूरे हो गए, जिनमें किसी न किसी पशु की बलि दी गयी। लेकिन जब 18 वें यज्ञ के समय जीवित पशु को बलि के लिए लाया गया, तो वहां मौजूद महाराजा अग्रसेन को इस हिंसा से बेहद घृणा उत्पन्न हुई और उन्होंने उसी समय से बलि प्रथा को रोक दिया। महाराजा ने पूरे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि अब कोई भी व्यक्ति निर्दोष पशु की बलि नही देगा। सभी लोग जानवरों की रक्षा करेंगे और कोई भी मांसाहार नहीं करेगा। महाराजा अग्रसेन इस घटना से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सूर्यवंशी क्षत्रिय धर्म त्याग कर, वैश्य धर्म अपना लिया। इसीलिए आज तक वैश्य धर्म में कोई भी मांसाहार नही करता है। 

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राजा नाग-राज की कन्या से हुआ था विवाह

महाराजा अग्रसेन जब अपने युवावस्था में थे, तो एक बार उन्हें राजा नाग-राज की कन्या के स्वयंवर में शामिल होने का न्यौता मिला। राजा नाग-राज की कन्या का नाम राज-कुमारी माधवी था और वे बेहद सुन्दर थी। दूर-दूर तक उनकी सुंदरता के चर्चे थे, इसीलिए उस स्वयंवर में अनेक राजा और राजकुमार शामिल होने आए। यहां तक कि राज-कुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो देवताओं के राजा इंद्र भी स्वयंवर में पधारे थे। लेकिन उन सभी में से  महाराजा अग्रसेन राज-कुमारी माधवी को भा गए और राज-कुमारी ने अग्रसेन के गले में जय माला डाल दिया। यह विवाह दो अलग-अलग संप्रदायों, संस्कृतियों और जातियों का मेल था। एक तरफ अग्रसेन जहां सूर्यवंशी थे, तो वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं। 

जब अग्रसेन छेड़ दी थी इंद्र के खिलाफ धर्म-युद्ध 

राजा नाग-राज की कन्या राज कुमारी माधवी ने अपने स्वंयवर में इंद्र और बाकी राजाओं में से महाराजा अग्रसेन को चुना। इंद्र को इस विवाह से बेहद जलन हुई और अपने अपमान के गुस्से में आकर उन्होंने प्रताप नगर में बारिश का होना रोक दिया। वर्षा न होने के चलते सूखा पड़ गया और चारों तरफ लोग त्राहिमाम करने लगे। अग्रसेन के क्षेत्र में अकाल पड़ गया और लोग मरने लगे। अपने नगर की यह स्थिति देख महाराजा अग्रसेन बेहद क्रोधित हुए और इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। अग्रसेन का पलड़ा भारी था क्योंकि वे धर्म-युद्ध की लड़ाई लड़ रहे थे। इस युद्ध को शांत कराने के लिए देवताओं ने नारद मुनि को मध्यस्थ बना दिया और दोनों के बीच सुलह कराने को कहा। नारद मुनि ने अपनी चतुरता से दोनों के बीच सुलह करा, युद्ध को शांत करवाया ।

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महाराजा अग्रसेन से जुड़ी कुछ खास बातें 

  • महाराजा अग्रसेन के जीवन और उनके अग्रवाल समाज की स्थापना के ऊपर 1871 में मशहूर लेखक भारतेंदु हरीशचंद्र ने “अग्रवालो की उत्पत्ति” नाम की पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में हमें अग्रसेन और अग्रवाल समाज से जुड़ी बहुत ही प्रमाणिक जानकारी मिलती है। 
  • नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास स्थित मशहूर अग्रसेन की बावली, जो कि अब एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल है, उसका निर्माण भी 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन ने ही कराया था। क़रीब 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ऊंची इस बावली के विषय में यह कहा जाता है कि इसका निर्माण महाभारत काल में हुआ था। 
  • यहाँ तक कि भारत सरकार ने भी महाराजा अग्रसेन के सम्मान में 24 सितंबर 1976 को उनके नाम पर 25 पैसे का डाक टिकट जारी किया था। भारतीय डाक ने सन 2012 में “अग्रसेन की बावली” पर यह डाक टिकट जारी किया।
  • इतना ही नहीं सन 1995 में भारत सरकार ने महाराजा अग्रसेन के नाम पर एक युद्ध पोत का नामकरण भी किया था। दक्षिण कोरिया से लगभग 350 करोड़ में खरीदे गए इस युद्ध पोत का नाम “महाराजा अग्रसेन” रखा गया।

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महाराजा अग्रसेन का सन्यास

महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य “अग्रोदय” में लगभग 108 वर्षो तक राज किया। उसके बाद अपनी कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श कर आग्रेय गणराज्य का शासन अपने बड़े बेटे विभु को सौंप दिया और स्वयं सन्यास ले लिया। महाराज अग्रसेन के जीवन के मुख्य रूप से तीन आदर्श थे- आर्थिक समरूपता, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था और सामाजिक समानता। आज भी महाराजा अग्रसेन का नाम इतिहास के उन चुनिंदा राजाओं में आता है, जिन्होंने आजीवन देश-हित और लोगों के कल्याण के लिए कार्य किया। 

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