कार्तिक पूर्णिमा के दिन क्यों मनाते हैं देव-दिवाली? जानें महत्व

दिवाली के त्यौहार के 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। देव दिवाली का यह त्यौहार देश के कई राज्यों में बेहद ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है लेकिन इसका सबसे ज्यादा उत्साह बनारस में देखने को मिलता है। इस दिन माँ गंगा की पूजा का भी विधान बताया गया है। दिवाली के दिन गंगा के तटों का नजारा देखने लायक होता है। देव दिवाली के इस पर्व पर गंगा नदी के घाटों पर दीए जलाकर उन्हें रोशनी से नहलाया जाता है। 

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देव दिवाली का शुभ मुहूर्त।

कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि का प्रारंभ 29 नवंबर को दोपहर 12 बजकर 47 मिनट से हो रहा है, जो 30 नवंबर दिन सोमवार को दोपहर 02 बजकर 59 मिनट तक है। ऐसे में देव दीपावली 29 नवंबर दिन रविवार को मनाई जाएगी।

क्यों मनाते हैं देव दिवाली का त्यौहार? 

मान्यताओं के अनुसार बताया जाता है कि यह वही दिन है जिस दिन भगवान शंकर ने राक्षस त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था। इसी बात की खुशी में देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर जश्न मनाया था। इसके बाद से हर साल इस दिन को देव दिवाली के रूप में मनाए जाने की परंपरा की शुरुआत हो गई। इस दिन पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। 

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देव दिवाली के बारे में एक बेहद प्रचलित मान्यता यह भी है कि इस दिन देवता लोग पृथ्वी पर आते हैं। इस माह में भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा, और आदित्य आदि ने महा पुनीत पर्वों को प्रमाणित किया है। जिस वजह से कार्तिक पूर्णिमा के पूरे महीने को बेहद ही पवित्र और लाभकारी माना जाता है। 

देव दिवाली में इन बातों का रखें विशेष ध्यान 

  • इस दिन गंगा स्नान को बेहद महत्वपूर्ण बताया गया है। 
  • इस दिन तुलसी के पौधे के सामने दीपक जलाना भी बेहद शुभ होता है। 
  • देव दिवाली के दिन दियों का दान बेहद ही शुभ माना जाता है। 
  • जो लोग इस दिन पूरब दिशा की तरफ मुख कर के दियों का दान देते हैं उन्हें हमेशा ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। साथ ही ऐसे लोगों को भगवान लंबी आयु का वरदान भी देते हैं। इसके अलावा उनके घर में सुख-शांति बनी रहती है। 

देव दिवाली का महत्व 

देव दिवाली का दिन वही दिन है जिस दिन भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर नामक का वध किया था। त्रिपुरासुर राक्षस के बारे में कहा जाता है कि उसे भगवान ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त था कि उसे कोई भी देवता, स्त्री, पुरुष जीव-जंतु, पक्षी या कोई भी निशाचर नहीं मार सकता है, इसलिए उसका उत्पात हद से ज्यादा बढ़ गया था।

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ऐसे में देवताओं को त्रिपुरासुर के तांडव से बचाने के लिए शिवजी ने अर्धनारीश्वर का रूप लिया और इसी रूप में उन्होंने त्रिपुरासुर का वध किया था। बताया जाता है इसी खुशी में देवताओं ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन शिव की नगरी कहे जाने वाले काशी में दीप जलाकर दिवाली मनाई थी और यहां उन्होंने दीप दान भी किया था। तभी से इस दिन देव दिवाली मनाए जाने का मान्यता की शुरुआत हुई। 

देव दिवाली: धार्मिक महत्व 

इस दिन के बारे में कहा जाता है कि काशी में देव दिवाली में सभी देवी देवताओं का आगमन होता है। इसके अलावा इस दिन दीपदान करने से हमारे पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है। यही वजह है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पितरों के निमित्त दान पुण्य एवं तर्पण करने का भी विधान बताया गया है। 

कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान आदि करने से भगवान विष्णु इंसान को उसके समस्त पापों से मुक्त करके इंसान के जीवन की शुद्धि कर देते हैं। देव दिवाली के दिन घर पर घी के दिए या तिल के तेल के दीए जलाने की मान्यता है। माना जाता है ऐसा करना बेहद ही लाभकारी होता है। प्रदोष काल के समय पूजा की थाल में दीपक जलाकर इस दिन देवताओं की पूजा की जाती है। 

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देव दिवाली के दिन शिवलिंग के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से इंसान को भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उनका जीवन कष्ट मुक्त हो जाता है। देव दिवाली के दिन जो इंसान छह मुखी दीपक जलाता है उसे गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। ऐसा करने वाले इंसानों की संतान संस्कारी और आज्ञाकारी होती है। वहीं अगर किसी के घर में बुरी नजर है तो इस दिन उन्हें तीन मुखी दीपक जलाने की सलाह दी जाती है।

देव दिवाली व्रत कथा 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तारकासुर नामक दैत्य के 3 पुत्र थे। तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली(त्रिपुरा)। जब भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसका बदला लेने के लिए उसके तीनों पुत्रों ने दिन-रात तपस्या करनी शुरू कर दी। 

इन तीनों की तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्मा जी ने उनसे आशीर्वाद मांगने को कहा तो उन्होंने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांग लिया। हालांकि ब्रह्मा जी को पता था कि अगर उन्होंने राक्षसों को यह वरदान दे दिया तो इससे परेशानी हो सकती है। ऐसे में उन्होंने उन्हें यह वरदान देने से मना कर दिया।

ब्रह्मा जी ने तब उन तीनों से कहा कि तुम उसकी जगह कोई और वरदान मांग लो। तब तीनों पुत्रों ने कहा कि वह चाहते हैं कि उनके नाम का एक नगर बनवाया जाए और जो कोई भी हमारा वध करना चाहता है वह एक ही तीर से हमें नष्ट कर सके, कोई ऐसा वरदान हमें दीजिए। ब्रह्मा जी ने उन्हें तथास्तु कहकर उनका मनचाहा वरदान दे दिया। 

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वरदान मिलने के बाद तारकासुर के तीनों पुत्रों ने तीनों लोकों पर कब्जा जमा लिया। उनके अत्याचार बढ़ने लगे। अंत में सभी देवता उनके अत्याचारों से परेशान होकर भगवान शिव के पास पहुंचे और उन्होंने उन्हें उन तीनों के वध के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की। 

तब भगवान भोलेनाथ ने विश्वकर्मा जी से एक रथ का निर्माण करवाया और उस रथ पर सवार होकर दैत्यों का वध करने के लिए निकल पड़े। देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध छिड़ गया जब युद्ध के दौरान तीनों, तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली(त्रिपुरा) एक सीध में आए तब भगवान शंकर ने एक तीर से तीनों का वध कर दिया। बोला जाता है कि इसके बाद से ही भोलेनाथ को त्रिपुरारी कहा जाने लगा और देवताओं ने विजय की खुशी में देव तिवारी का महापर्व मनाना शुरू किया।

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