(अधिक)आश्विन पूर्णिमा व्रत : जानें आश्विन पूर्णिमा का शुभ मुहूर्त और पूजन विधि

हिन्दू धर्म में पूर्णिमा तिथि का विशेष महत्व माना गया है। प्रत्येक मास में एक पूर्णिमा तिथि पड़ती है और सभी पूर्णिमा तिथि का अपना अलग महत्व होता है, लेकिन इन सभी पूर्णिमा तिथि में से कुछ पूर्णिमा बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती हैं। अक्टूबर के महीने में पहली पूर्णिमा तिथि 1-अक्टूबर को पड़ रही है, जिसे अधिक आश्विन पूर्णिमा कहा जायेगा, और दूसरी 31 अक्टूबर को पड़ रही है जिसे अश्विन पूर्णिमा कहा जाता है। अधिक आश्विन पूर्णिमा का दिन धार्मिक रूप से बेहद ही महत्वपूर्ण माना गया है। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा, दान-पुण्य व पवित्र नदी में स्नान का विधान है। 

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सबसे पहले बात करते हैं पूर्णिमा पूजन विधि के बारे में 

कहते हैं कोई भी व्रत या पूजन तभी फलित होता है अगर, उसे सही विधि-विधान के साथ किया जाये। तो आइये जानते हैं कि आश्विन पूर्णिमा व्रत की उचित पूजन विधि और शुभ मुहूर्त क्या है।

अक्टूबर 1, 2020, बृहस्पतिवार : आश्विन अधिक पूर्णिमा/ अधिक पूर्णिमा व्रत

आश्विन, शुक्ल पूर्णिमा

प्रारम्भ – 12:25 ए एम, अक्टूबर 01

समाप्त – 02:34 ए एम, अक्टूबर 02

  • पूर्णिमा के दिन सच्चे मन से व्रत और निष्ठापूर्वक पूजन का संकल्प लें और फिर स्नानादि के पश्चात तांबे के अथवा मिट्टी के कलश की स्थापना करें। इस कलश को एक साफ़ वस्त्र से ढ़कें। 
  • इसके बाद पूजा वाले स्थान पर माता लक्ष्मी की प्रतिमा/तस्वीर/या फिर मूर्ति स्थापित करें। जिनसे संभव हो वो माता लक्ष्मी की स्वर्णमयी प्रतिमा भी रख सकते हैं। 
  • इसके बाद शाम के समय, अर्थात चंद्रोदय के समय अपने सामर्थ्य अनुसार ही सोने, चांदी या मिट्टी से बने घी के दिये जलायें। 
  • इस दिन अगर आप 100 दिये जलायें तो यह बेहद ही उपयुक्त होगा। 
  • इस दिन के प्रसाद के लिये घी युक्त खीर बना लें। 
  • इस खीर को किसी बर्तन में रखकर चांद की चांदनी में इसे छोड़ दें। 
  • इसके बाद लगभग तीन घंटे के पश्चात यह खीर माता लक्ष्मी को अर्पित करें। 
  • मुमकिन हो तो सबसे पहले यह खीर किसी योग्य ब्राह्मण या फिर किसी जरुरतमंद अन्यथा घर के बड़े बुज़ुर्ग को प्रसाद रूप में भोजन करायें। 
  • इसके बाद सच्ची आस्था से भजन कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करें। 
  • सूर्योदय के समय माता लक्ष्मी की प्रतिमा किसी विद्वान ब्राह्मण को अर्पित करें।
  • इस दिन दान-पुण्य का भी विशेष महत्व माना गया है। ऐसे में अपनी यथाशक्ति अनुसार कुछ दान अवश्य करें।

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क्या है पूर्णिमा व्रत का महत्व ?

पूर्णिमा की रात के बारे में ऐसी मान्यता है कि इस रात को चाँद अपनी सभी सोलह कलाओं से संपूर्ण होकर अपनी किरणों से रात भर अमृत की वर्षा करता है। यही वजह है कि इस दिन खीर बनाकर उसे पहले चंद्रमा की रौशनी के नीचे रखा जाता है और फिर सुबह के समय उसका सेवन किया जाता है।  कहा जाता है कि ऐसा करने से खीर अमृत के समान हो जाती है। 

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इसके अलावा मान्यता के अनुसार जो कोई भी इन्सान चांदनी की तले रखी इस खीर का सेवन करता है, चांदनी में रखी यह खीर उनके लिए किसी औषधी का काम करती है, जिसमें कई सारे रोग को ठीक करने की क्षमता होती है। 

इसके अलावा पूर्णिमा व्रत के साथ माँ लक्ष्मी की कृपा से भी जुड़ी हुई है। कहते हैं कि माता लक्ष्मी इस रात को भ्रमण पर होती हैं और जो कोई भी इंसान उन्हें श्रद्धा-भक्ति से कतः जागरण करते हुए मिलता है उस पर अपनी कृपा अवश्य बरसाती हैं।

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पूर्णिमा की पौराणिक कथा 

पूर्णिमा के बारे में एक प्रसिद्द कथा के अनुसार बताया जाता है कि, “ प्राचीन समय में एक साहूकार हुआ करता था। उस साहूकार की दो बेटियां थीं। दोनों पुत्रियाँ पूर्णिमा का उपवास किया करती थीं लेकिन जहाँ एक पुत्री पूरा व्रत निर्धारित रूप से पूरी लग्न और श्रद्धा के साथ पूरा किया करती थी, वहीं दूसरी हमेशा ही उपवास बीच में छोड़ दिया करती थी।

समय बीता तो दोनों का विवाह हुआ। तब उपवास विधिपूर्वक रखने वाली पुत्री ने एक खूबसूरत संतान को जन्म दिया, लेकिन जो पुत्री उपवास बीच में ही तोड़ देती थी उसकी या तो संतान हुई नहीं, और जब होती भी थी तो वो जन्म के बाद जीवित नहीं रह पाती थी। जिसके चलते वो काफी परेशान रहने लगी। काफ़ी समय तक ऐसा चलता रहा, अंत में परेशान होकर उसनें वजह जानने के लिए अपनी कुंडली जानकार को दिखाई।

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तब पंडितों ने उसे बताया कि, क्योंकि तुमने पूर्णिमा व्रत अधूरे किये हैं इसलिए तुम्हारे साथ ऐसा हो रहा है। लड़की ने पूछा कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना होगा? तब पंडितों ने उसे पूजन विधि बताई और कहा कि पूरी निष्ठा से आश्विन मास की पूर्णिमा का उपवास रखो। साहूकार की पुत्री ने ठीक वैसा ही किया।

कुछ समय पश्चात उसे दोबारा संतान सुख प्राप्त हुआ लेकिन इस बार संतान जन्म के पश्चात कुछ दिनों तक ही जीवित रही। तब उसने अपने मृत शीशु को पीढ़े पर लिटाकर उसे एक कपड़े से ढ़ककर रख दिया और जाकर अपनी बहन को बुला लाई। बहन आई तो उसने उसे बैठने के लिए वही पीढ़ा पकड़ा दिया जिसपर उनसे अपने मृत शिशु को लिटाया था।

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बड़ी बहन पीढ़े पर बैठने ही वाली थी कि तभी उसके कपड़े के छूते ही बच्चे के रोने की आवाज़ आने लगी। यह देख बड़ी बहन को बेहद आश्चर्य हुआ और उसनें अपनी बहन से कहा कि तू अपनी ही संतान को मारने का दोष मुझ पर लगाना चाहती थी? अगर अभी मैं बैठ जाती और बच्चे को कुछ हो जाता तो?

तब छोटी बहन ने कहा कि यह बच्चा तो पहले से मरा हुआ था लेकिन आपके हाथ लगाते ही आपके प्रताप से ही यह जीवित हो उठा है। बस इसके बाद से ही पूर्णिमा व्रत की शक्ति का महत्व पूरे नगर में फैल गया और नगर में विधि विधान से हर कोई यह उपवास रखने लगा।

हम आशा करते हैं कि पूर्णिमा व्रत पर लिखा हमारा यह लेख आपके लिए सहायक साबित होगा। एस्ट्रोसेज के साथ बने रहने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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