भगवान विष्णु को त्रिदेवों(ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में पालनकर्ता की संज्ञा दी गयी है। भगवान विष्णु की बात इसलिए क्योंकि उनसे जुड़ा एक त्यौहार बस मुहाने पर ही खड़ा है। हम बात कर रहे हैं आमलकी एकादशी या फिर कहें तो रंगभरनी एकादशी की।
आपको बता दें कि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी के रूप में जाना जाता है। आमलकी एकादशी महाशिवरात्रि और होली के बीच में पड़ती है।
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आज हम आपको बताएंगे कि आमलकी एकादशी के दिन क्या उपाय कर के आप भगवान विष्णु को प्रसन्न कर सकते हैं। हिन्दू धर्म में आमलकी एकादशी के महत्व का आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि इस दिन आंवले के वृक्ष और भगवान विष्णु की पूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही आमलकी एकादशी के दिन आंवले के पेड़ की पूजा की वजह, पूजा करने की विधि और इस पर्व के शुरुआत के पीछे की कहानी भी हम आज आपको बताने वाले हैं।
कैसे शुरुआत हुई थी आमलकी एकादशी की ?
आमलकी का अर्थ होता है आंवला। कहते हैं कि जब भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना करने के लिए भगवान ब्रह्मा को जन्म दिया था तब उन्होंने आंवले के पेड़ की भी रचना की थी। आंवले के पेड़ को जन्म देने के बाद भगवान विष्णु ने इसे तब ‘आदि वृक्ष’ की संज्ञा दी थी। ऐसी मान्यता है कि आंवले के वृक्ष के हर अंग में भगवान वास करते हैं। इस वृक्ष के जड़ में भगवान विष्णु निवास करते हैं और आंवले का फल भगवान विष्णु का प्रिय फल भी है।
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आमलकी एकादशी को रंगभरनी एकादशी क्यों कहा गया?
आमलकी एकादशी को रंगभरनी एकादशी भी कहा जाता है। जाहिर है कि इसके पीछे भी एक कहानी है। लेकिन यह कहानी भगवान शिव और माता पार्वती से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि माता पार्वती से विवाह के बाद जब भगवान शिव अपनी सबसे प्रिय नगरी काशी को पहली बार लौटे थे तब उनके स्वागत में काशी के लोगों ने पूरे शहर की गलियों को अलग-अलग रंगों से सजाया गया था। तब से इस एकादशी को रंगभरनी एकादशी भी कहा जाता है। तब से लेकर आज तक काशी में यह परंपरा चलती ही आ रही है। आज भी रंगभरनी एकादशी के दिन काशी के लोग भगवान शिव और माता पार्वती के स्वागत में पूरे नगर को रंगों से सजाते हैं। इस दिन काशी में स्थित बाबा विश्वनाथ का भी विशेष रूप से श्रृंगार किया जाता है।
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शुभ मुहूर्त :
तारीख: 26 मार्च, 2021
दिन: शुक्रवार
समय: 06:18:53 से 08:46:12 तक
पारण की अवधि : 2 घंटे 27 मिनट
क्या है पूजा की विधि?
इस दिन भक्त व्रत रखते हैं। सबसे पहले भगवान विष्णु की आराधना की जाती है और उसके बाद आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है।
आंवले के पेड़ की पूजा से पहले पेड़ के चारों ओर की जमीन को अच्छे से साफ़ करें और उसे गाय के गोबर से जमीन को पवित्र करें। इसके बाद आंवले के पेड़ की जड़ में एक वेदी का निर्माण करने के बाद वहां कलश देवता को स्थापित करें। कलश देवता में समस्त देवी-देवताओं को आमंत्रित कर लें। कलश में सुगन्धि और पंचरत्न रखें और उसके बाद इसके ऊपर पंचपल्लव को रख कर एक दीपक जला लें। कलश पर चंदन लगाएं और उसके बाद इसे वस्त्र पहनाएं।
अंत में इस कलश के ऊपर भगवान परशुराम की की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है और विधि अनुसार उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। भक्त रात में भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए भगवत कथा और भजन करते हैं। इसके बाद अगले दिन यानी कि द्वादशी के दिन सुबह में ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाता है और उसके बाद कलश और भगवान परशुराम की मूर्ति ब्राह्मण देवता को भेंट कर दी जाती है। द्वादशी के दिन भक्त ब्राह्मणों के भोजन कर लेने के पश्चात ही भोजन और जल ग्रहण करते हैं।
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