भगवान शिव और विष्णु की असीम कृपा दिलाती है होली से पहले पड़ने वाली आमलकी एकादशी

फाल्गुन माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाई जाने वाली आमलकी एकादशी किसी बड़े पर्व से कम नहीं मानी जाती है। मान्यता है कि, यह एकादशी भगवान शिव और भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय होती है। होली से पहले पड़ने वाली यह बेहद ही महत्वपूर्ण एकादशी इस वर्ष 25 मार्च यानी गुरुवार के दिन मनाई जाएगी। आमलकी एकादशी के दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान है। कहा जाता है जो कोई भी व्यक्ति इस दिन इस तरह से भगवान विष्णु की पूजा करता है और व्रत रखता है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

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कब है आमलकी एकादशी और क्या है इस दिन का शुभ मुहूर्त? 

2021 में आमलकी एकादशी कब है?

25 मार्च, 2021–गुरुवार

आमलकी एकादशी पारणा मुहूर्त :06:18:53 से 08:46:12 तक 26, मार्च को

अवधि :2 घंटे 27 मिनट

यह मुहूर्त दिल्ली के लिए मान्य है।
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आमलकी एकादशी की पूजन विधि 

  • इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत होने के बाद व्रत पूजा का संकल्प लें। 
  • संकल्प लेने के लिए घर के मंदिर में भगवान विष्णु की तस्वीर या मूर्ति के सामने अपने हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर व्रत करने का संकल्प करें। संकल्प लेते समय भगवान विष्णु से कहें, “मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना करने से इस आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो इसके लिए भगवान विष्णु मुझे अपनी शरण में रखें।” 
  • इसके बाद पूजा विधि विधान के साथ शुरू करें। 
  • सबसे पहले भगवान विष्णु जी की प्रतिमा को स्नान कराएं और उससे साफ कपड़े पहनाए। 
  • भगवान विष्णु की प्रतिमा/मूर्ति को किसी चौकी पर स्थापित करें। इसके बाद भगवान विष्णु को फूल, तुलसी दल और कुछ फल चढ़ाएं। 
  • इसके बाद आमलकी एकादशी की व्रत कथा पढ़ें और अंत में भगवान विष्णु जी की आरती उतारकर भोग लगाएं। 

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आमलकी एकादशी महत्व 

हिंदू धर्म के अनुसार सभी एकादशी का विशेष महत्व माना गया है। हालांकि इनमें से कुछ एकादशी का महत्व अन्य सभी एकादशियों से अधिक माना गया है। ऐसी ही एक एकादशी है आमलकी एकादशी। आमलकी का अर्थ होता है आंवला। ऐसी मान्यता है कि, जब भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा जी को जन्म दिया था उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को भी जन्म दिया था। ऐसे में आंवले के पेड़ को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया था। आंवले के पेड़ के हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। ऐसे में मान्यता है कि, जो कोई भी इंसान आमलकी एकादशी के दिन आंवला और श्री हरि विष्णु की पूजा करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि, आंवला भगवान विष्णु का प्रिय फल होता है। आंवले के वृक्ष में भगवान विष्णु का निवास माना गया है। इसके अलावा इस व्रत के बारे में ऐसी मान्यता है कि, जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से आमलकी एकादशी का व्रत पूजन करता है उसे एक हज़ार गोदान के फल के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।

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आमलकी एकादशी के दिन आंवले के पेड़ की पूजा का महत्व और कैसे करें आंवले के पेड़ की पूजा

आमलकी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करने के बाद आंवले के पेड़ की पूजा का भी विधान बताया गया है। इस दिन आंवले के पेड़ के चारों तरफ की जमीन साफ कर लें। इसके बाद पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर कलश स्थापित करें। कलश में पंचरत्न रखें और दीपक जलाएं। इसके बाद कलश के ऊपर परशुराम जी की मूर्ति स्थापित करें और इसकी विधिवत पूजा करें। शाम के समय दोबारा से भगवान विष्णु का पूजन करें। एकादशी की रात में भजन कीर्तन का महत्व बताया गया है। ऐसे में भजन कीर्तन करते हुए रात गुजारें। अगले दिन यानी द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन कराएं और उन्हें अपनी यथाशक्ति के अनुसार दान दक्षिणा दें और इसके बाद ही अपने व्रत का पारण करें।

आंवले के वृक्ष को पापों को हरने वाला बताया गया है। माना जाता है कि आंवले के पेड़ के मूल में भगवान विष्‍णु, ब्रह्मा और भगवान भोलेनाथ विराजते हैं। इसकी शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्‍तों में वसु और फलों में सभी प्रजापति निवास करते हैं। इसलिए जो भी इस आंवले के पौधे या फिर वृक्ष की पूजा करते हैं उन्हें भगवान विष्णु की विशेष कृपा अवश्य ही मिलती है। 

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आमलकी एकादशी व्रत कथा 

प्राचीन समय में वैदिश नाम के एक नगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण के लोग बेहद ही खुशी खुशी से रहते थे। इस नगर में कोई भी व्यक्ति पापी अधर्मी या नास्तिक नहीं था। यहां हर जगह वैदिक कर्म का अनुष्ठान हुआ करता था। हर समय इस नगर में वेद ध्वनि गूंजती रहती थी। उस नगर में चंद्रवंशी राजा राज किया करते थे। इसी चंद्रवंशी राजवंश में एक राजा थे चैत्ररथ, जो बेहद ही धर्मात्मा एवं सदाचारी स्वभाव के हुआ करते थे। यह राजा बेहद पराक्रमी, शूरवीर, धनवान, भाग्यवान तथा शास्त्रज्ञ थे। यह राजा अपनी प्रजा को बेहद खुशी से रखते थे। ऐसे में पूरे नगर का वातावरण बेहद ही अनुकूल था। इस नगर की प्रजा विष्णु भगवान के परम भक्त थी ऐसे में सभी लोग एकादशी का व्रत किया करते थे। जिसके चलते इस राज्य में कोई भी दरिद्र नहीं था। 

एक बार की बात है, फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वादशी संयोगिता आमलकी एकादशी का दिन आया। यह एकादशी महा-फल देने वाली होती है। ऐसे में इस बात को ध्यान में रखते हुए इस नगर के बच्चे, बूढ़े, युवा, स्त्री, पुरुष राजा सभी ने इस व्रत के नियमों का पालन किया और व्रत किया। एकादशी वाले दिन राजा प्रात काल नदी में स्नान करने गए और फिर उसी नदी के किनारे बने भगवान विष्णु के मंदिर में पहुंचे। इसके बाद राजा और उनकी प्रजा ने मिलकर यहां भगवान की स्थापना की और सभी नियमों का पालन करते हुए धूप, दीप प्रज्वलित करके आमलकी अर्थात आंवले के साथ-साथ भगवान श्री परशुराम जी की पूजा की। पूजा के बाद सभी ने प्रार्थना की, ‘है परशुराम! आपको नमस्कार है हे आमलकी! हे ब्रह्मा पुत्री! हे दात्री! हे पापनाशिनी! आपको नमस्कार है आप हमारी पूजा स्वीकार करें।’ इसके बाद राजा ने अपनी प्रजा के लोगों के साथ भगवान विष्णु और भगवान परशुराम जी की पवित्र चरित्र कथा का श्रवण किया, कीर्तन किया और एकादशी का व्रत की महिमा सुनते हुए रात्रि जागरण भी किया। 

इसी दिन की शाम में एक शिकारी शिकार करता हुआ वहां आ पहुंचा। यह शिकारी जीवों की हत्या करके अपने जीवन को व्यतीत कर रहा था। जब उसने मंदिर में बहुत से लोगों को एक साथ देखा और साथ ही दीप मालाओं से सुसज्जित मंदिर देखा तो शिकारी सोचने लगा कि, यह सब क्या हो रहा है? बता दें कि शिकारी अपने पिछले जन्म के पुण्य का उदय होने के चलते ही वहां एकादशी व्रत करते हुए भक्तजनों को देखने में सफल हुआ था। इसके बाद अंदर पहुंचने पर उसने कलश के ऊपर विराजमान भगवान श्री दामोदर जी का दर्शन किया और वहां बैठकर भगवान श्री हरि के चरित्र कथा का श्रवण करने लगा। शिकारी दिन भर से भूखा प्यासा था। हालांकि इसके बावजूद भी उसने एकाग्र मन से एकादशी व्रत के महात्म्य की कथा और भगवान श्री हरि की महिमा श्रवण करते हुए उसने भी अन्य लोगों की तरह रात्रि जागरण किया। सुबह होने पर राजा अपनी प्रजा के साथ अपने नगर को आ गया और शिकारी भी अपने घर वापस आ गया और उसके बाद ही उसने भोजन ग्रहण किया। 

बताया जाता है कि, कुछ समय बाद ही उस शिकारी की मृत्यु हो गई। हालांकि अनजाने में ही किए गए एकादशी व्रत के पालन तथा एकादशी तिथि में रात्रि जागरण करने के प्रभाव से उस शिकारी ने दूसरे जन्म में विशाल धनसंपदा, सेना, हाथी-घोड़े, रत्न से पूर्ण एक जयंती नाम की नगरी के विदूरथ नाम के राजा के यहां पुत्र के रूप में जन्म लिया। अपने इस जन्म में वह सूर्य के समान पराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमाशील, धर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठा और अनेक सद्गुणों से युक्त होकर भगवान विष्णु का परम भक्त हुआ। इसके अलावा वह बहुत बड़ा दानी भी बना। इस जन्म में शिकारी का नाम था वसुरथ। एक बार की बात है वसुरथ जंगल में शिकार खेलने गया लेकिन, वापसी में वह रास्ता भटक गया। काफी देर तक बाहर निकलने का प्रयास करने के बाद थक हार कर भूख प्यास से से व्याकुल होकर वह जंगल में ही सो गया। 

इस समय जंगल में रहने वाले कुछ लोग राजा के पास आकर उसकी हत्या की कोशिश करने लगे। उन्हें लग रहा था कि, राजा उनका शत्रु है। ऐसे में उसकी हत्या कर देना ही सही होगा उन युवकों को ऐसा प्रतीत हुआ कि, यह राजा वही व्यक्ति है जिसने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्रों आदि को मारा है। ऐसे में उन्होंने राजा की हत्या करने की चेष्टा के लिए उसके ऊपर जितने भी बाण आदि चलाएं वह राजा को लगने की जगह इर्द-गिर्द गिरते रहे और राजा को खरोच तक नहीं आई। अब धीरे-धीरे करके उनके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गए और जिसे देखकर वे भयभीत हो गए। तभी उन लोगों ने देखा कि, राजा के शरीर से एक दिव्य गंध युक्त, अनेक आभूषणों से सजी एक परम सुंदरी देवी का प्राकट्य होता है। देवी को देखकर सभी युवक इधर-उधर भागने लगे लेकिन देवी ने हाथ में चक्र लेकर एक ही पल में सभी का वध कर डाला। 

जब राजा नींद से जागा तो उसने यह भयानक हत्याकांड देखा और आश्चर्यचकित हो गया। तभी वह सोचने लगा कि, मेरी इन शत्रु को मारकर मेरी रक्षा किसने की होगी? तभी आकाशवाणी हुई कि, भगवान केशव को छोड़कर भला शरणागत की रक्षा करने वाला और है ही कौन? ऐसे में भगवान श्री हरि ने ही तुम्हारी रक्षा की है। आकाशवाणी को सुनकर राजा को बेहद प्रसन्नता हुई। साथी भगवान श्री हरि के चरणों में वह कृतज्ञ होकर गिर पड़ा और अपने राज्य में वापस आकर पुनः न्यायप्रिय होकर राज्य करने लगा।

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