कहते हैं अहंकार इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। एक अहंकारी मनुष्य को अपने आगे कुछ भी नज़र नहीं आता। एक बार अगर किसी भी इंसान में ये भावना आ गयी तो फिर उसकी पूरी ज़िंदगी नरक के समान हो जाती है क्योंकि फिर वो किसी भी अन्य इंसान को अपने से श्रेष्ठ होते नहीं देख सकता और अगर ऐसा किसी भी सूरत में हो जाता है तो फिर अहंकारी मनुष्य उनसे कुढ़ने लग जाता है। शायद यही वजह है कि भगवान भी अपने भक्तों में अहंकार की ये भावना पनपने नहीं देना चाहते हैं और इसीलिए बड़ी ही विनम्रता के साथ उन्होंने लोगों का अहंकार तोड़ कर उन्हें ये समझाने का प्रयत्न भी किया कि हर इंसान जैसा है उसे वैसा ही रहना चाहिए।
किसी से अहंकार करने से आपका ही नुकसान होता है। इसी बात से जुड़ी एक पौराणिक कथा है जो हम आपको बताने जा रहे हैं। ये कथा उस समय की है जब एक सभा में भगवान कृष्ण को इस बात का अहसास हुआ कि रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरूड़ को अपने ऊपर अहंकार हो चला है।
एक बार प्रभु श्री-कृष्ण अपने महल में रानी सत्यभामा के साथ अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे। पास ही में गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी थे। तब बात ही बात में रानी सत्यभामा ने प्रभु श्री-कृष्ण से पूछ लिया कि, “’हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था, तब सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वो मुझसे ज्यादा सुंदर थीं?” रानी सत्यभामा का ये सवाल सुनकर सुदर्शन चक्र को भी खुद पर अहंकार हुआ और उन्होंने भगवान से पूछा कि, सुदर्शन चक्र : “हे प्रभु मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजय दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? गरूड़ : “भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है?”
तीनों के सवालों को सुनकर भगवान कृष्ण को यकीन हो गया कि इन तीनों को खुद पर अहंकार हो गया है। ऐसे में उनके इस अहंकार को तोड़ने के इरादे से भगवान श्री-कृष्ण ने एक तरकीब निकाली और सबसे पहले गरूड़ से कहा, “हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि भगवान राम और माता सीता उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अर्थात वो जल्दी उनसे मिलने आये”.
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इसके बाद उन्होंने रानी सत्यभामा से कहा कि, “हे देवी आप सीता जी के रूप में तैयार हो जाएं” और स्वयं भगवान कृष्ण ने राम का रूप धारण कर लिया। इसके बाद उन्होंने सुदर्शन चक्र से कहा कि, “तुम महल के प्रवेश-द्वार पर पहरा दो। ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी नहीं आये.”
तीनों भगवान की बात मानकर अपना-अपना काम करने चले गए। सबसे पहले गरूड़ भगवान हनुमान के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर उनसे कहा, “हे वानर देवता आपको भगवान राम ने मिलने के लिए अति-शीघ्र बुलाया है , वो माता सीता के साथ अपने महल में आपका इंतज़ार कर रहे हैं। अतः आप शीघ्र ही मेरी पीठ पर सवार हो जाइये मैं आपको उनके पास ले चलता हूँ.”
गरूड़ की पूरी बात सुनकर भगवान हनुमान विनय-पूर्वक बोले, “आप चलिए मैं आता हूँ.” भगवान हनुमान के मुख से ये सुनकर गरूड़ मन में ही सोचने लग गए कि, ‘ना जाने ये बूढ़ा वानर कब भगवान के पास पहुँच पायेगा? मैं खुद ही भगवान के पास समय से पहुँच जाता हूँ.’ ये सोचकर गरूड़ वहां से चले गए।
लेकिन द्वारका पहुँचकर गरूड़ जैसे ही महल में पहुंचे उन्होंने देखा कि वहां हनुमान पहले से ही उपस्थित थे। ये देखकर गरूड़ को अपनी सोच पर काफी अफ़सोस भी हुआ और वो लज्जा से मुंह लटकाकर वहीँ खड़े हो गए। इसके बाद श्री-कृष्ण ने भगवान हनुमान से पूछा, “पवन-पुत्र आप महल में कैसे आये? क्या आपको यहाँ आने से किसी ने रोका नहीं?” तब जवाब में भगवान हनुमान ने अपने मुंह से सुदर्शन चक्र निकाला और कहा कि, “प्रभु मैं आपसे मिलने आ ही रहा था कि महल के द्वार पर इस चक्र ने मुझे रोकने की कोशिश की तब मैंने इसे अपने मुंह में डाल लिया, मुझसे क्षमा कीजिए”
हनुमान जी के ऐसा बोलने के बाद सुदर्शन चक्र को भी अपनी गलती का एहसास हो गया। इसके बाद हनुमान जी ने कहा कि, “हे प्रभु आज माता सीता के स्थान पर एक दासी को क्यों बैठाया है? एक दासी आपके साथ सिंहासन पर क्यों विराजमान है?”
ऐसा सुनकर अब रानी सत्यभामा का भी घमंड चूर-चूर हो गया। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरूड़ तीनों को ही अपनी गलती का एहसास हो गया। हालाँकि तीनों को ये समझने में ज़रा भी देर नहीं लगी कि ये भगवान का एक तरीका था उनके अभिमान को चूर करने का। अपनी गलती का एहसास होते ही उनकी आँखों में आँसू थे और तीनों भगवान के चरणों में गिर गए।