शिवरात्रि के त्यौहार के साथ कई पौराणिक कथाएं जुड़ीं हुई हैं। ऐसी ही एक कथा है एक शिकारी की। शिकारी की ये कहानी शिव पुराण में भी मिल जाती है। इस कथा के अनुसार एक बार पार्वती जी ने भगवान शिव शंकर से पूछा कि ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ और सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर सकते हैं?’ इस सवाल के जवाब में भोलेनाथ ने शिवरात्रि के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई।
इस कथा के अनुसार बताते हैं कि बहुत पुराने समय की बात है एक शिकारी हुआ करता था। इस शिकारी का नाम था गुरुद्रुह। ये शिकारी गुरुद्रुह रोज़ शिकार करने के लिए वन में जाता था और वहां से किसी ना किसी जानवर का शिकार कर के ही लौटता था। शिकारी के इस शिकार से ही उसके परिवार का भरण-पोषण चल रहा था।
एक दिन जब शिकारी रोज़ाना की तरह शिकार पर गया तब उसे कोई जानवर ही नहीं मिला। उसने बहुत समय तक किसी शिकार को ढूँढा लेकिन अंत में उसके हाथ सिर्फ निराशा ही लगी। बहुत समय बीत जाने के बाद उसके दिमाग में उसके घरवालों का ख़्याल आया। तब उसने सोचा कि आज शिकार ना मिलने की वजह से उसके पत्नी-बच्चे, माँ-बाप सबको भूखा ही सोना पड़ेगा। ऐसा सोचकर वो और ज़्यादा दुखी हो गया। तभी उसे पास ही में एक पानी का तालाब नज़र आया। उसने वहां पानी पिया और फिर वो वहीँ पास में मौजूद एक पेड़ पर पानी लेकर ये सोचकर चढ़ गया कि ज़रूर कोई ना कोई जानवर अभी पानी पीने इस तालाब तक आएगा मैं तब उसका शिकार कर लूँगा।
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अनजाने में शिकारी ने भगवान शिव की तीनों पहर की पूजा कर ली
शिकारी हाथ में पानी लिए काफी देर तक उस पेड़ पर बैठा रहा। दरअसल वो पेड़ बेल पत्र का पेड़ था और उसके नीचे ही एक शिवलिंग भी थी। सूखे पत्तों से ढके होने की वजह से वो शिवलिंग नज़र नहीं आ रही थी। रात का पहला पहर बीत जाने के बाद एक हिरणी वहां पानी पीने आयी। उसे देख शिकारी ने अपना बाण तान दिया। इसी दौरान उसके हाथ से लग-कर कुछ सूखे पत्ते और पानी की कुछ बूँद सीधे शिवलिंग पर जाकर गिर गयी। अनजाने में ही सही लेकिन ऐसा करने से शिकारी की पहले पहर की पूजा हो गयी।
इसी दौरान हिरणी को एहसास हो गया कि आसपास कोई है। उसने घबराहट में जैसे ही ऊपर देखा उसे वहां शिकारी नज़र आया। तब डरी-सहमी हिरणी ने शिकारी से कहा, “कृपा करके मुझे मत मारो, मैं गर्भणी हूँ।” तब जवाब में शिकारी ने कहा, “मुझे तुम्हें मारना ही पड़ेगा नहीं तो मेरे बच्चे और मेरा परिवार भूखा रह जायेगा.” तब हिरणी में जवाब दिया कि, “मुझे एक बार जाने दो, मैं अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर वापिस आ जाऊंगी।”
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शिकारी को हिरणी की बात का विश्वास नहीं हो रहा था। तब हिरणी ने कहा की जिस तरह सत्य पर ही धरती टिकी है, समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जलधाराएं गिरा करती हैं वैसे ही मैं भी सच बोल रही हूँ। वैसे तो शिकारी क्रूर था लेकिन ऐसी बातें सुनकर उसको हिरणी पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर उस हिरणी को जाने दिया।
इसी तरह शिकारी की एक एक करके तीन पहर की पूजा पूरी हो गई। जब तीसरे पहर की पूजा का वक़्त हुआ तब उसे हिरण दिखा। हिरण ने शिकारी को देखा और पूछा ‘तुम क्या करना चाहते हो?’ शिकारी ने जवाब दिया, “मैं तुम्हारा शिकार कर के अपने परिवारवालों को भोजन कराऊंगा।” शिकारी की बात सुनकर हिरण बहुत खुश हुआ। उसने कहा, “मैं तुम्हारी ऐसी बात सुनकर धन्य हो गया हूँ। मुझे ख़ुशी होगी कि अगर मेरा ये शरीर किसी के काम आएगा। बस मुझे अभी जाने दो। मैं अपने बच्चों को उनकी माँ को सौंप कर तुम्हारे पास वापिस लौट आऊंगा।” शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘जल्दी लौट आना।’
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अब रात का अंतिम पहर शुरू हो गया था तभी शिकारी ने देखा कि हिरण-हिरणी अपने बच्चों के साथ उसकी तरफ आ रहे हैं। उसने एक बार फिर बाण तान लिया और ऐसे उसकी चौथे पहर की भी पूजा संपन्न हो गयी। लेकिन तभी उसके मन में ख्याल आने लगा कि, “ ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।” ऐसा ख्याल आते ही उसने अपना बाण रोक लिया। काफी समय से ये सब देख रहे भगवान शिव शिकारी के इस कदम से बेहद प्रसन्न हुए और उसे ‘गुह’ नाम दिया। ज्ञात रहे ये ‘गुह’ वहीँ हैं जो रामायण ने राम के मित्र कहलाए थे।
दिन भर के उपवास, पूरी रात में जागरण और शिवलिंग पर बेल पत्र और जल चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। इसलिए उसने एक एक कर के कई जानवरों को जाने दिया था। शिकारी के इस कमा से भगवान बेहद प्रसन्न हुए और उन्होंने इस शिकारी और हिरण के परिवार मोक्ष का वरदान दिया।