जानिए भगवान को भोग लगाने की परंपरा क्यों शुरू हुई और क्या कहते हैं शंकराचार्य।

भारत एक बहुत बड़ा देश है और जितना बड़ा यह देश है उससे कहीं ज्यादा यहाँ के लोगों के मन में अपने इष्ट के लिए आस्था और प्रेम व्याप्त है। आस्था ऐसी कि आराध्य को भोग लगाए बिना ज़्यादातर सनातनी अन्न ग्रहण तक नहीं करते। लेकिन ऐसे में सवाल है कि क्या आपको पता है कि यह परंपरा बनाई क्यों गई है? सबसे बड़ी बात कि अगर आपसे कोई पूछे कि आप भगवान को भोग लगाते ही क्यों हैं तो आपके पास इसका क्या जवाब है? हो सकता है आप में से कई लोगों को इस सवाल का जवाब पता होगा लेकिन बहुत से ऐसे भी होंगे जिन्हें इसकी सही-सही जानकारी नहीं होगी। बस इस वजह से ही आज इस लेख में हम आपको यह बताएंगे कि भगवान को भोग क्यों लगाया जाता है।

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क्यों लगाया जाता है भगवान को भोग?

दरअसल हमारे शास्त्रों में भी यह बात बताई गयी है कि स्वयं के भोजन ग्रहण करने से पहले इष्ट को भोग लगाना चाहिए। वैसे तो शास्त्रों में भोग लगाने की प्रक्रिया को अन्न का दुष्प्रभाव कम करने की विधि बताया गया है। लेकिन गौर से देखें तो भोग लगाने की प्रक्रिया के पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है। दरअसल हमें बचपन से ही बताया और समझाया गया है कि भोजन ग्रहण करते वक़्त जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसी स्थिति में भोजन का हमारे शरीर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में भोजन से पूर्व मनुष्य के अंदर धैर्य और उसे शांतचित्त का बनाने के लिए इष्ट को भोग की परंपरा आरंभ की गयी होगी। जाहीर है कि धार्मिक कार्यों से मनुष्य का चित्त शांत होता है। लेकिन भोग से जुड़े कुछ सवालों का सबसे सुंदर जवाब जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि देते हैं जिसका यहाँ उल्लेख करना जरूरी है।

एक बार किसी धार्मिक कार्यक्रम में जगत गुरु शंकराचार्य से किसी भक्त ने भोग से जुड़े कुछ प्रश्न पुछे। उस भक्त ने शंकराचार्य जी से पूछा कि हम भोग क्यों लगाते हैं? अगर हम भोग लगाते हैं तो क्या भगवान उसे खाते या ग्रहण करते हैं? क्या हमारे लगाए गए भोग के रंग, रूप, मात्र, स्वाद या गंध में किसी भी प्रकार का परिवर्तन आता है? अगर कोई परिवर्तन नहीं आता तो भोग लगाने का फिर औचित्य ही क्या है? क्या ये अंधविश्वास नहीं है? अगर अंधविश्वास है तो क्या आपको नहीं लगता है कि इस परंपरा को बंद कर देना चाहिए?

जब जगत गुरु ने भक्त के इतन सारे सवाल सुने तो वो बड़े ही सहज भाव से इस सवाल का जवाब एक वाकये से देते हैं।

उन्होंने समझाया कि मान लीजिए कि आप किसी खास दिन भगवान को भोग लगाने के लिए मंदिर जाना चाहते हैं। आपने भगवान को चढ़ाया जाने वाला लड्डू खुद से तैयार किया। जब आप अपने घर के रास्ते से मंदिर की तरफ जा रहे थे तभी आपका कोई मित्र या रिश्तेदार आपको मिल जाता है और आपसे पूछता है कि आप ये क्या लेकर जा रहे हैं। इसका जवाब आप क्या देंगे? आप उसे यही बताएंगे कि आपके हाथ में लड्डू है। अगर आपके मित्र या रिश्तेदार ने तुरंत ही दूसरा सवाल आपसे पूछा कि यह लड्डू किसका है तो आप उसको क्या जवाब देंगे? आप उनसे कहेंगे कि यह लड्डू मेरा है और मैंने ही इसे बनाया है। ठीक है! आप मंदिर चले जाते हैं। भगवान को भोग लगाते हैं और घर की ओर लौटने लगते हैं। आपको फिर से एक दूसरा मित्र या रिश्तेदार मिलता है। उस व्यक्ति ने भी आपसे यही सवाल किया कि आपके हाथ में क्या है तब आप इसका क्या जवाब देंगे? आप उन्हें बताएंगे कि आपके हाथ में ‘भगवान का प्रसाद’ है।

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शंकराचार्य आगे कहते हैं कि बस यही औचित्य है भगवान को भोग लगाने का ताकि आपके मन का ‘मम भाव’ यानी कि मेरा और मैं वाला भाव खत्म हो जाये। इस भाव के खत्म होने की शुरुआत तो हो। भोग लगाने से आपके मन का अहंकार मिटता है। आपके अंदर अर्जित करने के बदले त्याग और दान की भावना पैदा होती है। आप भगवान का प्रसाद ढूंढ-ढूंढ कर लोगों में और अपने सगे-संबंधियों में बांटते हैं। बस इस वजह से भोग की परंपरा को कभी भी अंधविश्वास का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।

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