जानिए दिवाली की रात जुआ क्यों खेला जाता है

दुनिया भर में दीपावली का त्यौहार इस वर्ष 14 नवंबर को धूमधाम के साथ मनाया जाएगा। हिंदू पंचांग के अनुसार यह पर्व हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन को दिवाली, दीपावली, लक्ष्मी पूजा, दीप मालिका, चौपड़ पूजा, शारदा पूजा, काली पूजा आदि के रूप में भी मनाया जाता है। अनेक लोग इस दिन जुआ खेलना शुभ मानते हैं। आज हम इस ख़बर के माध्यम से यह जानेंगे कि आखिर दिवाली की रात जुआ क्यों खेला जाता है और ऐसी कौन सी परंपराऐं हैं, जिनकी वजह से जुआ खेलना प्रारंभ हुआ है।

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सबसे पहले दीपावली के दिन किस ने खेला जुआ

एक धार्मिक मान्यता के अनुसार दीपावली की रात को ही भगवान शंकर और माता पार्वती ने जुआ खेला था, जिसमें महादेव हार गए थे और माता पार्वती की जीत हुई थी। इसी के बाद माता पार्वती ने यह वरदान मांगा था कि यदि दीपावली की रात कोई व्यक्ति जुए में जीतेगा, तो साल भर उस पर लक्ष्मी की कृपा बरसेगी और भगवान शिव ने ऐसा ही होने का वचन दिया था। इसी के बाद से दीपावली के दिन जुआ खेलने का चलन शुरू हुआ। हालांकि कानूनी तौर पर जुआ खेलने को मान्यता प्राप्त नहीं है और इस कथा के बारे में भी कोई ठोस मान्यता नहीं है।

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आज के दिन जुआ खेलने का विशेष कारण

लोगों की मान्यता है कि दीपावली के दिन जुआ खेलना शुभ होता है और इसी से उन्हें पूरे अगले वर्ष के बारे में अपनी आर्थिक स्थिति की जानकारी मिलती है। अर्थात जो व्यक्ति जुए में जीत जाता है, उसके लिए आने वाला साल आर्थिक तौर पर काफी समृद्धशाली होने वाला होता है और जो लोग जुए में हार जाते हैं, उन्हें हानि का सामना करना पड़ता है। इसी मान्यता को आधार बनाकर काफी लोग इस दिन जुआ खेलने में रुचि दिखाते हैं।

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दिवाली के रात जुए का बड़ा कारोबार

दीपावली की रात का हर किसी को बेसब्री से इंतजार होता है। केवल भारत ही नहीं बल्कि नेपाल तथा अन्य देशों में भी इस दिन जुए का कारोबार अरबों तक पहुंच जाता है। नेपाल में तो धनतेरस के दिन से जुआ खेलना प्रारंभ हो जाता है, जो दीपावली के अगले दिन भी जारी रहता है और इसलिए भारत से कुछ लोग नेपाल भी चले जाते हैं।

जुआ खेलने के विभिन्न तरीके

भारत में काफी पुराने समय से जुआ खेला जाता रहा है। पौराणिक काल में चौसर के रूप में जुआ खेला जाता था। इसमें लकड़ी अथवा पत्थर की गोटियाँ होती थीं और उसकी गोटी के चार भाग हुआ करते थे, जिस के हर भाग में 16 अंक होने के कारण हादसे में कुल 64 खाने हुआ करते थे। यह चौसर मनोरंजन के तौर पर ही खेली जाती थी। यही चौसर आगे चौपड़ के रूप में जाना जाने लगा, जहां सोने की मुद्राएं, अनाज, जानवर, आभूषण, आदि वस्तुओं पर दाँव पर लगाया जाता था। उसी के बाद द्युत क्रीड़ा के रूप में भी इसे जाना जाने लगा और उसके बाद ताश के पत्तों से जुआ खेलना चालू हुआ, जो अभी तक जारी है। हालांकि समाज में इसे बुराई के रूप में देखा जाता है और इसे कानूनी मान्यता भी प्राप्त नहीं है। कई लोग दिवाली के जुए में अपना सब कुछ हार जाते हैं और फिर जीवन में परेशानियां झेलते हैं। महाभारत काल में भी शकुनि द्वारा इसी का प्रयोग किया गया। हम आशा करते हैं कि आपके साथ ऐसा ना हो।

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