शिवरात्रि के महत्व को समझना है तो स्वयं सदाशिव को समझना होगा। हालाँकि सान्त मन अनन्त शिव-तत्त्व को ग्रहण नहीं कर सकता, फिर भी मन की सीमाओं से परे जाने का माध्यम यही समझने की चेष्टा है। आदि शंकराचार्य अपनी प्रसिद्ध रचना निर्वाण षटकम् का आरम्भ करते हुए कहते हैं, “न मैं मन हूँ, न बुद्धि, न अहंकार और न ही चित्त हूँ। न ही कान हूँ, न नेत्र, न घ्राणेन्द्रिय और न ही जिह्वा हूँ। न आकाश हूँ, न भूमि, न अग्नि और न ही वायु हूँ। मैं तो चिदानन्द रूप शिव हूँ, शिव हूँ।”
कौन हैं शिव और हमारा इनसे क्या नाता है? वह कौन है जो कैलाश पर विराजमान है और डमरू बजाते हिमालय पर विचरण करता है? वह कौन है जो रुद्र है–रुलाने वाला, फिर भी शिव है–शुभ और कल्याणकारी? वह कौन है जो प्रचण्ड ताण्डव से पूरा ब्रह्माण्ड तप्त कर देता है और अगले ही पल समाधि में सभी उपाधियों को लीन कर अद्वैत हो जाता है?
यह शिव-तत्त्व ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। बल्कि अगर कहा जाए कि हमारा अस्तित्व ही शिव-भाव का रूप है, तो भी ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा। चेतना के कैलाश पर हम स्थित हैं क्योंकि हम चैतन्य-रूप हैं, साथ ही विस्मयकारी सृष्टि रूप हिमालय में भ्रमण कर रहे हैं। अपने इस शिवस्वरूप को जानने के लिए शिवरात्रि से श्रेष्ठ और क्या समय हो सकता है, जब स्वयं ही भीतर का शिवत्व आत्माभिव्यक्ति के लिए अकुलाया हुआ हो।
भीतर गहरे में जितना उतरेंगे, उतना शिव को अधिक जानेंगे। परिधि पर कभी शिव को जानना संभव नहीं है। वह केन्द्र में स्थित है। मोती की तरह उसे पाने के लिए गहरे जाना ज़रूरी है, छिछले में वह नहीं मिलेगा। गहरे में कैसे जाएँ–इसका प्रतीक है शिवरात्रि।
हमने अपने अन्तःकरण को शुष्क बना डाला है। हम सूखी बुद्धि से परिचालित होते रहते हैं, हृदय का रस दिन-ब-दिन सूखता जाता है। भौतिक सुखों के पीछे दौड़, इन्द्रियों की तृष्णा, भोगों के लिए वासना हमें सुखाती जाती है। आख़िर में हमने अपने को उस ठूँठ की तरह बना दिया है, जो सदियों से मुर्झाया मृत-सा किसी मरुभूमि में खड़ा हो।
अन्दर के शिव-तत्त्व की उपलब्धि के लिए अपने भीतर फिर तरलता लानी होगा। हृदय को पुष्ट कर बुद्धि के स्तर पर खड़ा करना होगा। अन्तःकरण को रस से सराबोर करना होगा–प्रेम, निःस्वार्थता और करुणा के रस से। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “वह मनुष्य जो शिव को निर्धन, दुर्बल तथा रुग्ण व्यक्ति में देखता है वही सचमुच शिव की उपासना करता है। यह निःस्वार्थपरता ही धर्म की कसौटी है। जिसमें जितनी अधिक निःस्वार्थपरता है वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक है तथा उतना ही शिव के समीप है।”
ऐसा हृदय प्राप्त करना ही हमारा कार्य है जो लोक-कल्याण के लिए विषपान भी करने में न हिचकिचाए। दुःखों का आलिंगन कर प्रेम की वृष्टि चारों ओर कर सके, ऐसी विस्तृत बुद्धि चाहिए। जिस क्षण ऐसा हो सकेगा, जब अन्दर आनन्द की फुहारें पड़ने लगेंगी, तो अद्वय शिव-तत्त्व अपने आप प्रकट होने लगेगा। यह तत्त्व आपको आनन्द से परिपूर्ण कर देगा, मौज से भर देगा, निर्भय कर देगा और रसपूर्ण बना देगा।
– प्रतीक पाण्डे