वैदिक ज्योतिष में ग्रह दशा को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और ऐसा माना जाता है कि हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वह किसी विशेष ग्रह की दशा में अपना प्रभाव दिखाने के कारण ही संभव होता है। कोई घटना घटित होगी अथवा नहीं होगी, इसके लिए कुंडली में उस घटना के होने अथवा ना होने की पुष्टि उस समय विशेष में प्रभावी महादशा अंतर्दशा और प्रत्यंतर दशा के ऊपर सबसे ज्यादा निर्भर करती है। जहां अच्छे ग्रहों की दशा जीवन में सुख समृद्धि और उन्नति के द्वार खोलती है तो वहीं अशुभ ग्रहों की दशा जीवन में समस्याओं का अंबार लगा देती है। यह शुभ और अशुभ ग्रह हर कुंडली के लिए अलग-अलग स्थिति वाले ग्रह हो सकते हैं।
ज्योतिष में दशाओं के आधार पर ही किसी भी भविष्यवाणी को किया जाता है क्योंकि ग्रह का गोचर और कुंडली में कोई घटना के घटित होने अथवा ना होने की स्थिति का परीक्षण उस समय में और आगामी समय में आने वाली दशाओं के आधार पर ही किया जाता है इसलिए ग्रह दशा महत्वपूर्ण होती है और हमारे जीवन पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। हम अपने जीवन में किस प्रकार की दिशा में आगे बढ़ेंगे, क्या हम सही रास्ते पर आगे जाएंगे या गलत रास्ते पर चल सकते हैं, क्या हम स्वस्थ रहेंगे अथवा हमें बीमारियां घेर लेंगी या हम अपने करियर में उन्नति करेंगे अथवा हमें अवनति का द्वार देखना पड़ेगा, यह सभी कुछ ग्रह दशा के प्रभाव के फल स्वरुप हमें पता चलता है।
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ज्योतिष में दशाओं का महत्व (Jyotish mein Dashaon ka Mahatva)
वैदिक ज्योतिष के अंतर्गत दशाएं बहुत महत्वपूर्ण होती हैं और यह किसी जातक के जीवन में होने वाली अच्छी और बुरी सभी प्रकार की स्थितियों का संपूर्ण घटनाक्रम दर्शाने में कामयाब होती हैं। किसी व्यक्ति के जीवन में कब अच्छा समय आएगा और कब बुरा समय आएगा, कब वह जीवन में तरक्की करेगा और कब उसे कष्ट झेलने पड़ेंगे, यह सब कुछ दशाओं के प्रभाव के कारण ही संभव होता है।
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वैदिक ज्योतिष कर्म और पुनर्जन्म सिद्धांत में विश्वास रखता है अर्थात हम जिस प्रकार के कर्म अपने पूर्व जन्मों में कर चुके हैं, उन्हीं कर्मों के अनुसार वर्तमान समय में हमें जीवन में कष्ट और सुख की प्राप्ति होती है और उन कष्ट और सुखों को प्रदान करने में दशाओं का महत्वपूर्ण स्थान होता है। किसी विशेष ग्रह की दशा में हमें अच्छे परिणाम मिलते हैं तो किसी भी विशेष ग्रह की दशा में हमें दुष्परिणाम भी मिलते है। यह सब हमारे पूर्व जन्म कृत कर्मों का परिणाम होता है, जो ग्रह अपनी विशेष दशा में हमें प्रदान करते हैं। यही कारण है कि ग्रह दशा किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी होती है।
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ज्योतिष में दशाओं के प्रकार
वैदिक ज्योतिष में अनेक प्रकार की दशाओं का वर्णन मिलता है, जिनमें सबसे मुख्य और प्रचलित विंशोत्तरी दशा होती है। इसके अतिरिक्त अष्टोत्तरी दशा, योगिनी दशा, जैमिनी दशा, कालचक्र दशा, आदि अनेक दशाओं के बारे में जानकारी मिलती है। जब भी दशाओं की गणना की जाती है तो वर्तमान समय में नक्षत्रों पर आधारित दशा पद्धतियों को ज्यादा महत्व दिया जाता है और यही कारण है कि वर्तमान समय में वे ज्यादा लोकप्रियता हासिल किए हुए हैं। अष्टोत्तरी दशा 108 वर्ष की होती है जबकि विंशोत्तरी दशा 120 वर्ष की मानी जाती है। इसके अतिरिक्त योगिनी दशा 36 वर्ष की होती है। इन सभी दशाओं में वर्तमान समय में विंशोत्तरी दशा सबसे अधिक प्रभावी और स्वीकार्य मानी जाती है।
विंशोत्तरी दशा (Vimshottari Dasha)
वैदिक ज्योतिष में सर्वप्रथम और सबसे सटीक मानी जाने वाली विंशोत्तरी दशा 120 वर्ष की मानी जाती है जिसमें सभी नौ ग्रहों का विशेष दशा काल होता है। यह नक्षत्र आधारित दशा होती है अर्थात जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में स्थित होता है, उस नक्षत्र के स्वामी ग्रह की जन्म महादशा जातक को जन्म के समय प्राप्त होती है और उसी तरीके से दशा क्रम आगे बढ़ता है। यदि किसी जातक का जन्म कृतिका, पूर्वाषाढ़ा अथवा पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ है तो इन तीनों ही नक्षत्रों के स्वामी सूर्य देव हैं तो उस जातक को जन्म के समय सूर्य देव की महादशा प्राप्त होगी। यदि सभी ग्रहों के दशा काल को समझने का प्रयास किया जाए तो यह निम्नलिखित है:
- सूर्य की महादशा – 6 वर्ष
- चंद्रमा की महादशा – 10 वर्ष
- मंगल की महादशा – 7 वर्ष
- राहु की महादशा – 18 वर्ष
- बृहस्पति की महादशा – 16 वर्ष
- शनि की महादशा – 19 वर्ष
- बुध की महादशा – 17 वर्ष
- केतु की महादशा – 7 वर्ष
- शुक्र की महादशा – 20 वर्ष
महा दशाओं का क्रम उपरोक्त दशा विवरण के अनुसार होता है अर्थात यदि किसी जातक का जन्म पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ है जोकि बृहस्पति का नक्षत्र है तो उस व्यक्ति को जन्म के समय महादशा बृहस्पति की प्राप्त होगी और उसके बाद शनि की महादशा शुरू होगी। फिर बुध की महादशा और इसी क्रम में बढ़ते हुए 120 वर्ष की आयु के अनुसार राहु की महादशा अंतिम दशा होगी।
जब हम विंशोत्तरी महादशा प्रणाली में आगे बढ़ते हैं तो महादशा के बाद अगली दशा का नाम अंतर्दशा, तदुपरांत प्रत्यंतर दशा, फिर सूक्ष्म दशा और फिर प्राण दशा आती है। किसी भी ग्रह की महादशा में पहली अंतर्दशा उसी ग्रह की होती है और किसी ग्रह की अंतर्दशा में पहली प्रत्यंतर दशा भी उसी तरह की होती है। इसी प्रकार एक ग्रह की महादशा में अन्य सभी ग्रहों की अंतर दशाएं भी प्रभाव दिखाती हैं।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उस नक्षत्र के स्वामी की महादशा प्राप्त होती है लेकिन जैसे कि यदि सूर्य की महादशा 6 वर्ष की है तो प्रत्येक व्यक्ति को सूर्य की महादशा 6 वर्ष के लिए ही नहीं मिलेगी अपितु चंद्रमा के उस नक्षत्र में भोगांश के अनुसार दशा अवधि का निर्धारण होता है।
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योगिनी दशा (Yogini Dasha)
विंशोत्तरी दशा के बाद योगिनी दशा को भी अच्छा महत्व दिया जाता है। यह भी एक नक्षत्र आधारित दशाकर्म है जो कि 36 वर्ष के लिए होती है और 36 वर्ष के उपरांत वही दशा कर्म पुनः दोहराया जाता है। इसको कुछ लोग अष्ट योगिनी दशा भी कहते हैं। इस दशा में भी विभिन्न ग्रहों के प्रभाव के अनुसार उनकी ग्रह दशा को नाम दिया गया है। समस्त 27 नक्षत्रों के आधार पर इस दशा की गणना होती है और अपने समय में कोई विशेष ग्रह व्यक्ति को शुभ अथवा अशुभ परिणाम प्रदान करता है।
योगिनी दशा के नाम क्रमशः मंगला, पिंगला, धान्या, भ्रामरी, भद्रिका, उल्का, सिद्धा और संकटा माने गए हैं और उनके दशा क्रम भी एक दूसरे से बढ़ते क्रम में होते हैं। इन दशाओं का प्रभाव काल निम्नलिखित होता है:
- मंगला – 1 वर्ष
- पिंगला – 2 वर्ष
- धान्या – 3 वर्ष
- भ्रामरी – 4 वर्ष
- भद्रिका – 5 वर्ष
- उल्का – 6 वर्ष
- सिद्धा – 7 वर्ष
- संकटा – 8 वर्ष
उपरोक्त दशाओं का कोई भोग्य काल 36 वर्ष होता है और 36 वर्ष की समाप्ति के उपरांत पुनः यही क्रम दोहराया जाता है अर्थात संकटा की दशा 8 वर्ष के बाद समाप्त हो जाती है तो उसके बाद दोबारा मंगला दशा शुरू हो जाती है और फिर यही क्रम चलता रहता है। अष्ट – योगिनी दशा की विभिन्न दिशाओं को इस प्रकार से समझ सकते हैं:
मंगला योगिनी दशा
सबसे पहले योगिनी दशा को मंगला के नाम से जाना जाता है। इसकी कुल अवधि 1 वर्ष की होती है और इस दशा के स्वामी ग्रह चंद्रमा होते हैं। यह दशा शुभ परिणाम देने वाली मानी जाती है और इस दशा में मुख्य रूप से व्यक्ति को सुख, संपत्ति, सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
पिंगला योगिनी दशा
मंगला योगिनी दशा के बाद अगली दशा का नाम पिंगला है। इस दशा के स्वामी ग्रह सूर्य देव होते हैं और यह 2 वर्ष की अवधि की होती है। यह दशा भी अनुकूल मानी जाती है और इस दशा काल में व्यक्ति को संकटों से मुक्ति मिलती है और सुख संपत्ति की प्राप्ति होने के साथ जीवन में उन्नति मिलती है।
धान्या योगिनी दशा
यह तीसरी योगिनी दशा है, जिसे धान्या के नाम से भी जाना जाता है और इसकी अवधि 3 वर्ष की होती है। इस दशा के स्वामी देव गुरु बृहस्पति होते हैं। यह एक अत्यंत शुभ दशा मानी जाती है और इस दशा काल में जातक को सभी प्रकार के धन-धान्य की प्राप्ति होती है और व्यक्ति जीवन में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है।
भ्रामरी योगिनी दशा
अष्ट योगिनी दशा क्रम में भ्रामरी योगिनी दशा चौथी दशा है। इस दशा की अवधि कुल 4 वर्ष की होती है और इसके स्वामी मंगल देव होते हैं। यह दशा मंगल का प्रभाव ज्यादा देने के कारण व्यक्ति के लिए थोड़ी सी कष्टप्रद भी हो जाती है। इस दशा के दौरान व्यक्ति के अंदर क्रोध की अधिकता होती है और कई प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ता है। आर्थिक रूप से नुकसान होने के योग बनते हैं और व्यक्ति को भ्रम हो सकता है।
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भद्रिका योगिनी दशा
भद्रिका को पांचवीं योगिनी दशा कहा जाता है। इसकी अवधि कुल 5 वर्ष की होती है और इस दिशा के स्वामी ग्रह बुध देव होते हैं। इस दशा में व्यक्ति को उसके शुभ कर्मों का अच्छा परिणाम प्राप्त होता है। उसके शत्रु का विनाश होता है तथा जीवन में आने वाले संकट समाप्त होने लगते हैं। यदि लंबे समय से व्यक्ति के जीवन में कोई समस्या और व्यवधान आ रहे हैं तो इस दशा में वे दूर हो जाते हैं।
उल्का योगिनी दशा
योगिनी दशा में उल्का योगिनी दशा छठे स्थान पर आती है। इसकी कुल अवधि 6 वर्ष की होती है और इस दिशा के स्वामी शनि देव होते हैं। यह दशा व्यक्ति से काफी परिश्रम करवाती है और उसके कार्यों में भी विलंब होता है। ज्यादा मेहनत और संघर्ष करने के बाद ही सफलता प्राप्त होती है। इसी कारण जीवन में भागदौड़ और व्यस्तता अधिक होती है और कामों में देरी होने लगती है तथा कुछ प्रकार के संकटों का सामना भी करना पड़ता है।
सिद्धा योगिनी दशा
अष्ट योगिनी दशा क्रम में सातवीं दशा सिद्धा योगिनी दशा है। इसकी कुल अवधि 7 वर्ष की होती है और इसके स्वामी ग्रह शुक्र देव हैं। यह एक अत्यंत शुभ दशा मानी जाती है। इस दशा में जातक को सभी भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति होती है। उसको वस्त्र, आभूषण, धन – धान्य का लाभ होता है। जातक के जीवन में प्रेम और आकर्षण की वृद्धि होती है। व्यक्ति की संपत्ति में वृद्धि होती है और जीवन में अभाव नहीं रहते। इस दशा में व्यक्ति उत्तम प्रगति करता है।
संकटा योगिनी दशा
अष्ट योगिनी दशा चक्र में अंतिम और आठवीं दशा संकटा योगिनी दशा है। इसकी कुल अवधि 8 वर्ष की होती है और इसके स्वामी राहु महाराज हैं। यह एक कष्ट पूर्ण दशा है और शुभ नहीं मानी जाती है। इस दशा में व्यक्ति को संकटों का सामना करना पड़ता है और उसके जीवन में कुछ समस्याएं आती हैं।
विंशोत्तरी ग्रह दशा फल संबंधित कुछ सामान्य नियम
जीवन में विभिन्न ग्रह दर्शाएं अपने स्वभाव और स्थिति के अनुसार अच्छे और बुरे प्रभाव प्रदान करती हैं और व्यक्ति के पूर्व जन्म में किए कर्मों के आधार पर उन्हें शुभ और अशुभ फल प्रदान करती हैं। हालांकि दशा फल से संबंधित कुछ सामान्य नियम भी हैं, जो निम्नलिखित हैं:
- ग्रह अपने नैसर्गिक और तात्कालिक प्रभाव, कुंडली स्थित उनकी अवस्था, आदि के आधार पर अपनी दशा में प्रभाव दिखाते हैं।
- उच्च राशि में स्थित ग्रह, स्वराशि में स्थित ग्रह और मूल त्रिकोण राशि में स्थित ग्रह आमतौर पर शुभ फल प्रदान करते हैं।
- कुंडली में नीच राशि गत ग्रह, शत्रु राशि गत ग्रह और अशुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा अशुभ परिणाम प्रदान करने वाली मानी जाती है।
- कुंडली के केंद्र और त्रिकोण भाव अर्थात प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम और दशम भावों में स्थित ग्रहों की दशा आमतौर पर शुभ परिणाम प्रदान करती है।
- कुंडली के छठे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी ग्रहों अथवा इन से संबंध बनाने वाले ग्रहों या फिर इन स्थानों में स्थित ग्रहों की महादशा आमतौर पर अशुभ परिणाम प्रदान नहीं करती हैं।
- यदि किसी शुभ ग्रह की महादशा चल रही हो तो उसमें चलने वाली पाप ग्रह की अंतर्दशा अशुभ परिणाम प्रदान करती है।
- यदि किसी अशुभ ग्रह की महादशा चल रही हो और उसमें शुभ ग्रह की अंतर्दशा हो तो उसका परिणाम मिश्रित होता है।
- शुभ ग्रह की महादशा में शुभ ग्रह की अंतर्दशा अत्यंत शुभ फल प्रदान करती है जबकि अशुभ ग्रह की महादशा में अशुभ ग्रह की अंतर्दशा सामान्य तौर पर फल देती है।
- यदि अशुभ ग्रह उस कुंडली के लिए योग कारक है तो उसकी दशा शुभ फल प्रदान करती है।
कुंडली के विभिन्न भावों के अनुसार दशा फल
ज्योतिष के अंतर्गत ग्रहों की दशाओं के कुछ भाव अनुसार फल भी दिए गए हैं। हालांकि किसी विशेष लग्न के लिए किसी विशेष ग्रह की स्थिति हर कुंडली में अलग अलग हो सकती है इसलिए देश – काल – परिस्थिति, ग्रह अवस्था और ग्रह स्थिति के आधार पर ही किसी भी ग्रह की दशा का आंकलन किया जाता है। फिर भी भाव के अनुसार ग्रहों की दशा का सामान्य फल निम्नलिखित है:
- लग्नेश अर्थात लग्न के स्वामी ग्रह की महादशा स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती है। इसके साथ ही व्यक्ति की धन और प्रतिष्ठा में भी वृद्धि करती है।
- द्वितीयेश अर्थात दूसरे भाव के स्वामी ग्रह की महादशा में व्यक्ति को धन का लाभ होता है लेकिन शारीरिक रूप से समस्याओं का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति के जीवनसाथी को भी कष्ट मिलते हैं।
- तृतीयेश अर्थात तीसरे भाव के स्वामी की महादशा आमतौर पर भाई बहनों से संबंधित घटनाओं को दर्शाती है और उनके लिए परेशानी का संकेत देती है। इस दशा में लड़ाई-झगड़े की संभावना रहती है और व्यक्ति को जीवन में सफलता पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
- चतुर्थेश अर्थात चौथे भाव के स्वामी ग्रह की दशा सुख संपत्ति की वृद्धि करती है। व्यक्ति को संपत्ति, घर, वाहन, मकान, आदि के सुख की प्राप्ति होती है और उसके जीवन में प्रेम और स्नेह की भी वृद्धि होती है तथा परिवार का सहयोग प्राप्त होता है।
- पंचमेश अर्थात पांचवें भाव के स्वामी ग्रह की दशा में व्यक्ति को मान सम्मान की प्राप्ति होती है। शिक्षा का लाभ होता है। संतान सुख की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही धन लाभ होता है लेकिन जातक की माता को शारीरिक समस्याएं हो सकती हैं।
- षष्ठेश अर्थात छठे भाव के स्वामी ग्रह की दशा में और रोग जन्म ले सकते हैं। व्यक्ति को शत्रु और विरोधियों से परेशानी उठानी पड़ सकती है। अनजाना भय सताता है। उसके अपमान की संभावना बनी रहती है और मानसिक तनाव होता है।
- सप्तमेश अर्थात सप्तम भाव के स्वामी ग्रह की दशा में विवाह होने की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त जीवनसाथी से संबंधित घटनाएं या जीवनसाथी को कष्ट, व्यापारिक संबंध, शारीरिक समस्याएं और अनुबंध होते हैं।
- अष्टमेश अर्थात अष्टम भाव के स्वामी ग्रह की दशा ज्यादा अनुकूल नहीं होती है। इस दौरान जीवन में कष्ट की बढ़ोतरी होती है। आर्थिक हानि होने की संभावना बनी रहती है। व्यक्ति को मृत्यु तुल्य कष्ट भी महसूस होता है। एक अंजाना डर सताता है लेकिन आध्यात्मिक तौर पर यह समय बहुत अच्छा होता है।
- नवमेश अर्थात नवम भाव के स्वामी ग्रह की दशा भाग्योदय कारक दशा होती है। इसमें व्यक्ति को अतुलनीय धन संपदा की प्राप्ति होती है। मान – सम्मान की बढ़ोतरी होती है। कीर्ति की वृद्धि होती है। व्यक्ति तीर्थ यात्राएं करता है। व्यक्ति को सुदूर यात्राएं करने का मौका मिलता है और नौकरी में तबादला होने के योग बनते हैं।
- दशमेश अर्थात दशम भाव के स्वामी ग्रह की महादशा में व्यक्ति की पद और प्रतिष्ठा की वृद्धि होती है। कार्यक्षेत्र में उत्तम सफलता मिलती है। व्यक्ति के पास धन की प्राप्ति के योग बनते हैं। उसके प्रभाव में बढ़ोतरी होती है। उसके पिता को लाभ होता है और व्यक्ति को सरकारी लाभ प्राप्ति के योग बनते हैं।
- एकादशेश अर्थात ग्यारहवें भाव के स्वामी ग्रह की महादशा में पिता को कष्ट होने की संभावना रहती है लेकिन जातक को धन लाभ होता है। उसके अनेक लोगों से अच्छे संबंध स्थापित होते हैं। सामाजिक दायरा भी बढ़ता है। जातक के यश में वृद्धि होती है और जीवन में लाभ मिलता है।
- व्ययेश अर्थात बारहवें भाव के स्वामी ग्रह की दशा में व्यक्ति की धन हानि के योग बनते हैं। उसके खर्चों में बेतहाशा बढ़ोतरी होती है। उसकी स्थिति विकट होने पर मानहानि का भी सामना करना पड़ता है। विरोधियों से पीड़ा होती है। पराजय होती है। शारीरिक कष्ट होते हैं। व्यक्ति विदेश यात्रा कर सकता है।
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हमारे जीवन में ग्रहों का बहुत महत्व है और उन्हीं का प्रभाव हमें उनकी दशाओं के रूप में दिखाई देता है। सूर्य देव को आत्मा का कारक माना जाता है तो चंद्र देव को मन का कारक। मंगल देव जीवन में बल प्रदान करने वाले ग्रह हैं तो बुधदेव बुद्धि प्रदान करते हैं। गुरुदेव जीव के कारक हैं तो शुक्र देव काम के कारक है और शनि देव आयु के कारक हैं। यही कारण है कि जब ग्रहों की महादशाओं के फल की बात आती है तो इन ग्रहों के कारकों पर भी ध्यान देना चाहिए और देश – काल और परिस्थिति को ध्यान में रखकर फल कथन करना चाहिए।
यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह योगकारक है अथवा कोई ग्रह राजयोग का निर्माण कर रहा है तो उसकी दशा उस व्यक्ति को राजयोग के समान उत्तम परिणाम प्रदान करती है। यदि आप भी अपनी कुंडली में ग्रहों की स्थिति के अनुसार यह जानना चाहते हैं कि आपकी कुंडली में कोई राजयोग है तो उस राजयोग को निर्मित करने वाले ग्रह की दशा में आपको उसका सुफल मिल सकता है। एस्ट्रोसेज की राजयोग रिपोर्ट से भी आप आसानी से जान सकते हैं कि आपकी कुंडली में राजयोग बन रहा है और उसका क्या प्रभाव आपको प्राप्त होगा।
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दशा के प्रभाव के रूप में ग्रह की स्वयं की स्थिति ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। यदि ग्रह उच्च राशिगत होता है तो व्यक्ति को मान – सम्मान प्रदान करता है। वहीं अशुभ स्थिति में होने पर शारीरिक समस्याएं, मानसिक तनाव, आर्थिक हानि और अनेक प्रकार की समस्याएं देखनी पड़ती है। यह देखना आवश्यक होता है कि इस जातक का जन्म किस नक्षत्र में हुआ है, उस नक्षत्र का स्वामी दशा स्वामी ग्रह नक्षत्र से किस स्थिति में है। यदि वह अतिमित्र अथवा मित्र है तो बहुत अच्छे परिणाम देता है लेकिन यदि अतिशत्रु या शत्रु है तो दुष्परिणाम देने से भी पीछे नहीं हटते।
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