हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। कुछ लोग भगवान में श्रद्धा होने के चलते किसी खास व्रत, तीज-त्यौहार वाले दिन पूजा करते हैं, तो वहीँ कुछ लोग अपनी पूरी ज़िंदगी ही भगवान के चरणों में समर्पित कर देते हैं। भक्त और भगवान के बीच के अटूट प्रेम का एक ऐसा ही उदाहरण हमें श्री कृष्ण की परम् भक्त और उनकी दीवानी मीराबाई के जीवन से मिलता है। 31 अक्टूबर, शनिवार के दिन मीराबाई की लगभग 522वीं जन्म वर्षगांठ मनाई जाएगी।
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हिन्दू कैलेंडर के अनुसार आश्विन माह के शरद पूर्णिमा के दिन हर साल मीराबाई जी की जयंती मनाई जाती है। “मीराबाई” जिन्हें शायद ही कोई नहीं जानता होगा! श्री कृष्ण को लेकर अपने असीम प्रेम के लिए मशहूर मीराबाई एक संत होने के साथ-साथ हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री भी थी। लोग आज भी मीराबाई के प्रेम रस में डूबे भजन को सुनते और गाते हैं।
मीराबाई की कविताओं और छंदों के हर एक शब्द में श्री कृष्ण के लिए उनके प्रेम की अद्भुत झलक देखने को मिलती है। इसीलिए कई जगहों पर श्री कृष्ण में श्रद्धा रखने वाले शरद पूर्णिमा के दिन मीराबाई की पूजा अवश्य करते हैं। आज इस लेख में हम आपको मीराबाई के जीवन से जुड़ी उन बातों को बताएँगे, जिनसे आप अभी तक अनजान हैं, लेकिन उससे पहले जान लेते हैं कि इस साल किस मुहूर्त में मीराबाई की पूजा करनी चाहिए।
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मीराबाई को पूजने का मुहूर्त
पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – अक्टूबर 30, 2020 को शाम 05:48 बजे से |
पूर्णिमा तिथि समाप्त – अक्टूबर 31, 2020 को रात 08:21 बजे तक |
ऐसा था मीराबाई का प्रारंभिक जीवन
महान कवियत्री और श्री कृष्ण की सबसे बड़ी भक्त मीराबाई जी के जन्म के बारे में कई जगहों पर अलग-अलग जानकारियाँ दी गयी हैं, लेकिन विकिपीडिया के अनुसार उनका जन्म 1498 में राजस्थान के जोधपुर जिले के पास कुड़की गांव में रहने वाले एक राठौर राजपूत परिवार में हुआ था। मीराबाई के पिता का नाम रत्न सिंह था, जो कि एक छोटे से राजपूत रियासत के राजा थे।
मीरा जी जब 2 साल की थी, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। माँ की मृत्यु के बाद उनकी परवरिश उनके दादा राव दूदा जी ने की। राव दूदा सिंह जी जोधपुर की स्थापना करने वाले राव जोधाजी राठौर के वंशज थे। मीराबाई के दादा एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और भगवान विष्णु के साधक भी थे। बचपन से ही दादा के साथ समय गुज़ारने के कारण मीराबाई पर भी उनके धार्मिक व्यवहार का गहरा असर पड़ा था। मीराबाई बहुत ही कम उम्र से ही कृष्ण भक्ति में रुचि लेने लगी थीं।
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चितौड़ के महाराजा से हुई थी मीराबाई की शादी
मीराबाई जब विवाह योग्य हुई तो उनके परिवार वाले उनकी शादी की बात चलाने लगे। हालाँकि मीराबाई श्री कृष्ण को पाना चाहती और उन्हीं को अपना पति मानती थी, इसीलिए वो विवाह नहीं करना चाहती थी। फिर भी उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर घरवालों ने मीराबाई का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज के महाराजा राणा सांगा के बड़े बेटे और उदयपुर के महाराजा कुमार भोजराज के साथ करा दिया। विवाह के कुछ सालों बाद ही एक युद्ध के दौरान मीराबाई के पति भोजराज की मृत्यु हो गई। पति की मौत के बाद वे जोगन बन श्री कृष्ण को अपना पति मानकर हर समय उनकी ही आराधना में लीन रहने लगी थी।
महान हिन्दू कवि के रूप में भी जानी जाती हैं मीराबाई
मीराबाई एक महान आध्यात्मिक हिन्दू कवियत्री थी, जिन्होंने श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को शब्दों का रूप देकर अनेकों कविताओं, पदों एवं छंदों की रचना की थी। मीराबाई ने लगभग 300 से अधिक कविताओं की रचना की। उनकी हर एक रचना में उनका श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम भाव साफतौर पर झलकता है। मीराबाई ने राजस्थानी, ब्रज और गुजराती जैसी कई भाषा शैली में अपनी अनेकों रचनाएं लिखी थी। लोग आज भी भक्ति रस के प्रेमी मीरा की रचनाओं और उनके भजनों को पूरी तन्मयता से गाते हैं। मीराबाई द्वारा लिखी गईं कुछ प्रसिद्ध रचनाएं “नरसी जी का मायरा, मीराबाई की मलार, गीत गोविंद टीका, राग सोरठ के पद, राग गोविंद, राग विहाग, गरबा गीत” हैं। “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रंथ में मीराबाई के कई गीतों का संकलन किया गया है।
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केवल श्री कृष्ण नहीं राम की भी भक्त थी मीराबाई
इतिहास में कुछ जगहों पर इस बात का भी जिक्र मिलता है कि मीराबाई प्रभु श्री राम की भक्त भी थी। उन्होंने तुलसीदास जी को भी अपना गुरु बनाया था और उनसे श्रीकृष्ण को पाने के लिए उपाय मांगा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार एक बार मीराबाई ने तुलसीदास जी को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि उनके परिवार वाले उन्हें कृष्ण की भक्ति नहीं करने देते। तब तुलसी दास जी ने मीरा को यह सुझाव दिया कि वे रामभक्ति करें। अपने गुरु के कहे अनुसार श्री कृष्ण के प्रेम में पागल मीरा भगवान राम की भी पूजा करने लगी और उनके लिए भजन भी लिखे। इस बात का प्रमाण मीराबाई के सबसे प्रसिद्ध भजन “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो” है।
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कैसे हुई मीराबाई की मृत्यु?
कुछ पौराणिक कथाओं के मुताबिक अपना पूरा जीवन श्री कृष्ण को समर्पित कर देने वाली मीराबाई ने अपना आखिरी समय कृष्ण को स्मरण करते हुए द्वारका में बिताया था। कहा जाता है कि द्धारका के द्धारकाधीश मंदिर में श्री कृष्ण के प्रेम भाव में डूबी मीरा कृष्णभक्ति करते-करते उनकी मूर्ति में समा गईं। इतने सालों बाद आज भी लोग श्री कृष्ण के सबसे परम् भक्त के रूप में मीराबाई को याद करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
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