दुर्गा पूजा के छठे दिन जहाँ कल्परम्भ परंपरा निभाई जाती है वहीं, सातवें दिन नव-पत्रिका परंपरा का आयोजन होता है। नव-पत्रिका को कई जगहों पर नबपत्रिका पूजन के नाम से भी जाना जाता है। तो आइये इस आर्टिकल के माध्यम से जानते हैं कि इस पूजा का क्या महत्व होता है, इस वर्ष किस दिन मनाई जाएगी नव-पत्रिका पूजा और क्या है इसका शुभ मुहूर्त।
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सबसे पहले बात करते हैं इस पूजा के नाम की, नव-पत्रिका दो शब्दों से मिलकर बना एक शब्द है। नव यानि नौ- और पत्रिका यानि कि पत्तियाँ। अब जानते हैं कि नव-पत्रिका पूजन के बारे में विस्तृत जानकारी।
नव-पत्रिका को नौ तरह की पत्तियों ने मिलकर बनाई जाती है। कौन सी हैं वो नौ पत्तियां और क्या है इनका महत्व, यह जानने के लिए आर्टिकल अंत तक पढ़ें। इन पत्तियों का इस्तेमाल दुर्गा पूजा में किया जाता है। नव-पत्रिका पूजन मुख्य रूप से बंगाली, उड़ीसा एवं पूर्वी भारत के क्षेत्रों में मनाया जाता है।
नव-पत्रिका पूजा को महा सप्तमी भी कहते है। कहा जाता है कि यह दुर्गा पूजा का पहला दिन होता है। इसके बाद इन नव-पत्रिका को महा सप्तमी के दिन दुर्गा पंडाल में रख दिया जाता है। इस वर्ष नव-पत्रिका पूजन 22 अक्टूबर-2020 को मनाई जाएगी।
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क्या है नव-पत्रिका पूजन का धार्मिक महत्व
नव-पत्रिका पूजन को कई जगहों पर कोलाबोऊ पूजा के नाम से भी जाना जाता है। नव-पत्रिका पूजन का अनुष्ठान किसान भी करते हैं। इस दौरान उनकी मन्नत यही होती है कि उन्हें इस वर्ष अच्छी फसल मिले। इस पूजा में किसान लोग किसी देवी की प्रतिमा की पूजा नहीं करते है, बल्कि अच्छी फसल के लिए प्रकृति की आराधना करते है। शरद ऋतु के दौरान, जब फसल काटने वाली होती है, तब नव-पत्रिका की पूजा की जाती है, ताकि कटाई अच्छे से हो सके।
इतना ही नहीं बंगाल और उड़ीसा के लोगों द्वारा दुर्गा पूजा के समय नौ तरह की पत्तियों को जोड़कर माँ दुर्गा की पूजा किये जाने का विधान है।
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नव-पत्रिका में नौ पत्तियों का क्या है महत्व ?
नव-पत्रिका में जो नौ अलग-अलग किस्म के पत्ते उपयोग में लाये जाते हैं, वो हर एक पेड़ का पत्ती अलग अलग देवी का रूप माना गया है। यह बात तो आप अच्छे से जानते ही होंगे कि नवरात्रि में नौ देवी की ही पूजा की जाती है। तो आइये अब जानते हैं कि यह नौ पत्ती कौन-कौन सी होती हैं। केला, कच्वी, हल्दी, अनार, अशोक, मनका, धान, बिलवा एवं जौ।
केला – केला का पेड़ और उसकी पत्ती ब्राह्मणी देवी को दर्शाती हैं।
कच्वी – कच्वी काली माता का प्रतिनिधित्व करती है। इसे कच्ची भी कहा जाता है।
हल्दी – हल्दी की पत्ती दुर्गा माता का प्रतिनिधित्व करती है।
जौ – ये कार्त्तिकी का प्रतिनिधित्व करती है।
बेल पत्र – वुड एप्पल या बिलवा शिव जी का प्रतिनिधित्व करता है, इसे बेल पत्र या विलवा भी कहते है।
अनार – अनार को दादीमा भी कहते है, ये रक्तदंतिका का प्रतिनिधित्व करती है।
अशोक – अशोक पेड़ की पत्ती सोकराहिता का प्रतिनिधित्व करती है।
मनका – मनका जिसे अरूम भी कहते है, चामुंडा देवी का प्रतिनिधित्व करती है।
धान – धान लक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करती है।
तो इस प्रकार यह नौ पत्तियाँ नौ देवियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, और इन्हें नव-पत्रिका पूजन में मुख्य रूप से इस्तेमाल में लाया जाता है।
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नव-पत्रिका पूजा कथा
कोलाबोऊ को भगवान गणेश जी की पत्नी माना जाता है। हालाँकि इस बात को लेकर अलग-अलग मत हैं। इसके अलावा नव-पत्रिका पूजन से संबंधित एक अन्य कथा भी है जिसके अनुसार बताया जाता है कि, कोलाबोऊ जिसे नव-पत्रिका भी कहते है, माँ दुर्गा की बहुत बड़ी भक्त थी। कोलाबोऊ देवी के नौ अलग अलग रूप के पेड़ के पत्तों से उनकी पूजा किया करती थी।
महासप्तमी की पूजा महास्नान के बाद शुरू की जाती है। इसे कोलाबोऊ स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन महास्नान का बहुत महत्व होता है। मान्यता है कि इस दिन जो कोई भी महास्नान में भाग लेता है माँ दुर्गा की असीम कृपा उनपर सदैव बनी रहती है।
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नवपत्रिका पूजन विधि
- सबसे पहले पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली इन सभी नौ पत्तियों को एक साथ बाँधा जाता है, और फिर इसे किसी पवित्र नदी में स्नान कराते है।
- इस नव-पत्रिका के साथ पवित्र नदी में स्नान करने की बड़ी महत्वता बताई गयी है। अगर नदी में नहीं, तो आप चाहे तो घर में भी स्नान कर सकते है। इसके बाद इस नव-पत्रिका से अपने उपर पानी/जल छिड़का जाता है।
- इसके बाद नव-पत्रिका को कई तरह के पवित्र जल से भी पवित्र किया जाता है, पहले पवित्र गंगा जल, दूसरे पड़ाव में वर्षा का पानी इस्तेमाल किया जाता है, तीसरे में सरस्वती नदी का जल लेते हैं, चौथे में समुद्र का जल, पांचवें पड़ाव में कमल के साथ तालाब का पानी लिया जाता है, और अंत में छठे पड़ाव पर झरने का जल इस्तेमाल में लाया जाता है।
स्नान के बाद महिलाएं बंगालियों की पारंपरिक लाल बार्डर की सफ़ेद साड़ी पहनकर तैयार होती हैं। उसी साड़ी से इस नव-पत्रिका को भी सजाया जाता है, इसके बाद उसे फूलों की माला से भी सजाते हैं। कहते है, जिस तरह एक पारंपरिक बंगाली दुल्हन तैयार होती है, इसे भी वैसे ही सजाना चाहिए।
महास्नान के बाद प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। पूजा वाले स्थान को साफ़-सुथरा कर ने के बाद इसमें माता दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है। रंग-बिरंगे फूलों और लाइट से इस जगह को सजाया जाता है।
प्राण प्रतिष्ठा के बाद षोडशोपचार पूजा की जाती है। इस दौरान माता दुर्गा की सोलह अलग-अलग तरह की चीज़ों से विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद यहाँ पर नव-पत्रिका को एक प्रतिमा के रूप में रखते है, और फिर उसपर चंदन लगाकर, फूल चढ़ा-कर पूजा करते है। इसके बाद इसके दाहिनी तरफ़ गणेश भगवान की मूर्ति को रखा जाता है। अंत में दुर्गा पूजा की महा आरती की जाती है। जिसके बाद प्रसाद वितरण होता है।
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दुर्गा पूजा
बंगाल में दुर्गा पूजा का अलग ही रंग देखने को मिलता है। यहाँ माँ दुर्गा के बड़े-बड़े पंडाल सजाये जाते हैं। इनमें माता के विभिन्न रूपों की मूर्तियां सजाई जाती है। नवरात्रि के दौरान यहाँ अलग ही नज़ारा देखने को मिलता है। लोग दूर-दूर से माता के रूप के दर्शन के लिए आते हैं। इस समय को लेकर लोगों के बीच ऐसी आस्था है कि दुर्गा पूजा के दौरान स्वयं माँ दुर्गा कैलाश पर्वत को छोड़ धरती में अपने भक्तों के साथ रहने आती है।
इस दौरान माँ दुर्गा, देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती, कार्तिक एवं गणेश के साथ धरती में अवतरित होती है। दुर्गा पूजा का पहला दिन महालय का होता है, जिसमें तर्पण किया जाता है। कहते हैं कि इस दिन देवों और असुरों के बीच घमासान हुआ था, जिसमें बहुत से देव, ऋषि मारे गए थे, उन्ही को तर्पण देने के लिए महालय का आयोजन किया जाता है। इसके बाद दुर्गा पूजा की शुरुआत षष्ठी तिथि से होती है, इसी दिन माँ इसी दिन धरती पर आई थी।
इसके अगले दिन सप्तमी का आयोजन किया जाता है, जिस दिन नव-पत्रिका या कोलाबोऊ की पूजा की जाती है। फिर अष्टमी को दुर्गा पूजा का मुख्य दिन माना जाता है, इस दिन संधि पूजा की जाती है। संधि पूजा अष्टमी औरनवमी दोनों दिन चलती है।
संधि पूजा में अष्टमी ख़त्म होने के आखिरी के 24 मिनट और नवमी शुरू होने के शुरुवात के 24 मिनट को ‘संधि क्षण’ कहा जाता है। जानकारी के लिए बता दें कि यह वही समय था, जब माँ दुर्गा ने चंड-मुंड नामक असुरों को मारा था। इसके बाद आती है, दशमी जिसे विजयादशमी भी कहते है।
दशमी के दिन दुर्गा माँ की पूजा के बाद उन्हें पानी में विसर्जित कर दिया जाता है। कहते है, इसके देवी अपने परिवार के साथ वापस कैलाश में चली जाती है।
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