भगवान शिव को देवों के देव महादेव का दर्जा प्राप्त है। भगवान शिव उन प्रमुख देवताओं में शामिल हैं जिन पर सृष्टि के संचालन की ज़िम्मेदारी है। त्रिदेवों में भगवान शिव को संहारक का दर्जा प्राप्त है। समुद्र मंथन में निकले विष से दुनिया को बचाने के लिए भगवान शिव ने वो विष का प्याला ग्रहण कर लिया था। यही वजहें हैं कि भगवान शिव का महत्व सनातन धर्म में काफी ज्यादा है। भगवान शिव के बारे में मान्यता है कि वे जितनी ही तेजी से किसी बात पर प्रसन्न होते हैं, उतना ही प्रचंड क्रोध भी उन्हें आता है। ऐसे में भगवान शिव की पूजा करते वक़्त कुछ नियमों का पालन करना बेहद जरूरी हो जाता है।
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उनमें से ही एक नियम महादेव को तुलसी पत्र चढ़ाने से जुड़ा है। क्या आपको पता है कि भगवान शिव की पूजा में तुलसी का पत्ता चढ़ाना निषेध माना गया है? अगर हाँ? तो क्या आपको इससे जुड़ी कथा पता है क्योंकि आज हम आपको इस लेख में वो कथा बताने वाले हैं जिसके बाद भगवान महादेव को तुलसी पत्र चढ़ाना वर्जित हो गया। आइये जानते हैं उस कथा के बारे में।
क्यों नहीं चढ़ाया जाता है भगवान शिव को तुलसी का पत्ता?
पौराणिक कथाओं के अनुसार जालंधर नामक एक राक्षस हुआ करता था जिसकी पत्नी वृंदा एक बेहद ही पतिव्रता स्त्री थी। जालंधर एक क्रूर दानव था और उसकी मंशा स्वर्ग पर राज करने की थी। इसके अलावा वो आम मनुष्य को भी परेशान करता रहता। जालंधर का उत्पात इतना बढ़ गया था कि भगवान शिव ने उसका वध करने का ठान लिया।
लेकिन जालंधर का वध करना आसान नहीं था और इसकी वजह थी उसकी पतिव्रता पत्नी वृंदा। वृंदा की पतिव्रता की वजह से जालंधर अमर हो चुका था। जालंधर का वध तभी किया जा सकता था जब उसकी पत्नी वृंदा की पतिव्रता भंग होती। ऐसे में भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धारण कर वृंदा की पतिव्रता को भंग कर दिया। वृंदा की पतिव्रता भंग होते ही भगवान शिव ने जालंधर का वध कर दिया।
कहा जाता है कि जब वृंदा को इस बात का पता चला कि उसके पति जालंधर का वध हो गया है तो उसने भी आत्मदाह कर लिया। जहां उसने आत्मदाह किया, वहां एक तुलसी का पौधा निकल आया। कहते हैं कि वृंदा ने आत्मदाह से पहले भगवान शिव को श्राप दे दिया कि उनकी पूजा में कभी भी तुलसी का पत्ता नहीं चढ़ाया जा सकेगा। इसके साथ ही उसने भगवान विष्णु को भी पत्थर हो जाने का श्राप दे दिया जिसके बदले में भगवान विष्णु ने उसे लकड़ी हो जाने का श्राप दे दिया।
इस दिन के बाद से ही वृंदा के श्राप की वजह से भगवान शिव की पूजा में तुलसी पत्र का उपयोग निषेध हो गया। भगवान विष्णु के श्राप की वजह से वृंदा तुलसी बन गयी और वृंदा के श्राप की वजह से भगवान विष्णु को शालिग्राम पत्थर के तौर पर पूजा जाने लगा।
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