जनेऊ संस्कार, हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक प्रमुख संस्कार है। जनेऊ सफेद रंग के तीन सूत्र से बना पवित्र धागा होता है जिसे बाएँ कंधे से दायें बाजू की ओर पहना जाता है। सनातन धर्म में इसे उपनयन संस्कार के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ उपनयन का तात्पर्य ईश्वर के निकट जाना होता है। देव वाणी संस्कृत में इसे यज्ञोपवीत संस्कार कहा जाता है। यह यज्ञ और उपवीत शब्दों के मिश्रण से बना है जिसका मुख्य अर्थ होता है कि यज्ञ-हवन करने का अधिकार प्राप्त होना। बिना जनेऊ संस्कार के पूजा पाठ करना, विद्या प्राप्त करना और व्यापार आदि करना सब कुछ निरर्थक माना जाता है।
शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि जनेऊ संस्कार की विधि से बालक के पिछले जन्मों में किए पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए यह बालक का दूसरा जन्म भी माना जाता है। क्योंकि जनेऊ संस्कार होने के बाद ही बालक का धर्म में प्रवेश माना जाता है। प्राचीन काल में इसी संस्कार के पश्चात ही बालक को शिक्षा दी जाती थी। बालक की आयु और बुद्धि बढ़ाने के लिए जनेऊ संस्कार अति आवश्यक है।
जनेऊ संस्कार कब होना चाहिए?
सामान्य रूप से जनेऊ संस्कार किसी बालक के किशोरावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश करने पर किया जाता है। शास्त्रों की मानें तो ब्राह्मण बालक के लिए 07 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष और वैश्य समाज के बालक का 13 वर्ष के पूर्व जनेऊ संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व यह संस्कार अवश्य हो जाना चाहिए।
- जनेऊ संस्कार के लिए शुभ समय – हिन्दू पंचांग के माघ माह से लेकर अगले छ: माह तक यह संस्कार किया जाता है। माह की प्रथमा, चतुर्थी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या या फिर पूर्णिमा तिथि जनेऊ संस्कार को संपन्न करने के लिए शुभ तिथियाँ होती हैं। वहीं यदि हम वार की बात करें तो सप्ताह में बुध, बृहस्पतिवार एवं शुक्रवार इसके लिए अति उत्तम दिन माने जाते हैं। रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। लेकिन मंगलवार एवं शनिवार के दिन को त्यागा जाता है क्योंकि इसके लिए ये दोनों ही दिन शुभ नहीं होते हैं।
- जनेऊ संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त – नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रेवती इस संस्कार के लिए शुभ नक्षत्र माने जाते हैं। एक दूसरे नियमानुसार यह भी कहा जाता है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शतभिषा नक्षत्र को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्रों में जनेऊ संस्कार की विधि संपन्न की जा सकती है।
जनेऊ संस्कार का महत्व
हिन्दू धर्म में प्रत्येक पूजा-पद्धति का एक विशेष महत्व हमेशा से ही रहा है। उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही छिपा होता है। फिर चाहें वह विशेष कारण धार्मिक हो, वैज्ञानिक हो या फिर ज्योतिषीय ही क्यों न हो। ठीक इसी प्रकार जनेऊ संस्कार के पीछे भी विशेष कारण छिपा है। इसके पीछे धार्मिक, वैज्ञानिक, ज्योतिषीय के साथ-साथ चिकित्सीय कारण भी जुड़ा हुआ है। आइए इन कारणों पर डालते हैं एक नज़र…
- धार्मिक महत्व
जनेऊ संस्कार को धार्मिक दृष्टि से देखें तो इसका सीधा संबंध ब्रहमा, विष्णु और महेश (शंकर जी) से है। इसके तीन सूत्र त्रिदेव का प्रतीक माने गए हैं। मनु स्मृति में ब्रह्मा जी को सृष्टि का रचनाकार कहा गया है, जबकि विष्णु को पालनहार और भगवान शिव को संहारक कहा गया है। अतः जनेऊ एक पवित्र धागा होता है। इसलिए इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए। यदि यह किसी कारणवश दूषित हो जाए तो इसे तुरंत विधि अनुसार बदल लिया जाता है।
वहीं यज्ञोपवीत को गायत्री की प्रतिमा के रूप में भी जाना जाता है। इस प्रतिमा को शरीर या मंदिर में स्थापित या धारण करने पर इसकी पूजा-आराधना का उत्तरदायित्व भी होता है। इसके लिए नित्य रूप से एक माला गायत्री मंत्र को जपना चाहिए। गायत्री मंत्र में तीन पद हैं और यज्ञोपवीत में भी तीन सूत्र हैं। प्रत्येक लड़ में तीन सूत्र हैं। गायत्री के एक-एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है।
शास्त्रों में दाएँ कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएँ कान में होने के कारण उसे दाएँ हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। जनेऊ में पाँच गाँठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पाँच यज्ञों, पाँच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
अन्य धर्मों में जनेऊ संस्कार
भारत वर्ष में शिक्षा-दीक्षा लेने की संस्कृति वैदिक काल से ही चली आ रही है। इसलिए हिन्दू धर्म में बालक के लिए यह संस्कार किया जाता है। लेकिन जनेऊ संस्कार केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं होता है। यह अन्य धर्मों में भिन्न-भिन्न तरीके और नाम से पहचाना जाता है।
- इस्लाम मज़हब में मक्का में काबा की परिक्रमा से पहले यह संस्कार किया जाता है।
- वहीं सारनाथ की बहुत प्राचीन बुद्ध की मूर्ति को यदि ग़ौर से देखें तो यह ज्ञात होता है कि उनकी छाती पर यज्ञोपवीत की पतली रेखा दिखाई देती है।
- वहीं जैन धर्म में भी यह संस्कार संपन्न होता है।
- इसके अलावा पारसी और यहूदी धर्म के अनुयायी भी इस परंपरा का पालन करते हैं।
- सिख धर्म में इसे अमृत संचार के रूप में जाना जाता है।
- ईसाई धर्म में इसे बपस्तिमा कहते हैं।
- वैज्ञानिक महत्व
वैज्ञानिक रूप से उपनयन संस्कार का विशेष महत्व बताया गया है। विशेषरूप से यह चिकित्सा की दृष्टि से एक बालक के लिए बहुत ही कारगर साबित होता है। इसलिए वैदिक शास्त्रों में इसे केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि एक आरोग्य पोषक की भी संज्ञा दी गई है। चिकित्सीय विज्ञान के अनुसार, शरीर के पिछले हिस्से में पीठ पर जाने वाली एक नस है, जो विद्युत के प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएँ कंधे से लेकर कमर तक स्थित होती है। यह अति सूक्ष्म नस है। अगर यह नस संकूचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लाँघ पाता है और जनेऊ इस नस को सकंचित अवस्था में ही रखता है। इसलिए जनेऊ को धारण करने वाला व्यक्ति शुद्ध चरित्र वाला होता है। उसके अंदर मानवीय गुणों का विकास होता है। यह उसकी आयु, बल और बुद्धि में वृद्धि के लिए सहायक होता है।
एक शोध के अनुसार जो व्यक्ति जनेऊ धारण करता है वह ब्लड प्रेशर और हृदय रोग से मुक्त होता है। दरअस्ल, जनेऊ शरीर में संचार होने वाले रक्त को नियंत्रित बनाए रखता है। चिकित्सकों का ऐसा मानना है कि जनेऊ हृदय के पास से गुजरता है जिससे हृदय रोग की संभावना कम हो जाती है। साथ ही दायें कान के पास से ऐसी नसें गुजरती हैं जिनका संबंध सीधे हमारी आंतों से होता है। जब मल-मूत्र विसर्जन के समय कान में जनेऊ लपेटने से इन नसों में दबाव पड़ता है। ऐसे में पेट अच्छी तरह से साफ़ हो जाता है और पेट से संबंधित रोगों से भी मुक्ति मिलती है।
ज्योतिषीय महत्व
वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु समेत कुल नौ ग्रह होते हैं और इन ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। जनेऊ में तीन सूत्र में कुल नौ लड़ें होती हैं जो नवग्रह का प्रतीक मानी जाती है। ज्योतिष शास्त्र में ऐसा माना जाता है जो व्यक्ति जनेऊ धारण करता है उस व्यक्ति को नवग्रहों का आशीर्वाद प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है। इसके साथ ही जनेऊ में उपयोग होने वाला श्वेत रंग का धाग शुक्र ग्रह से संबंध को दर्शाता है। शुक्र ग्रह सौन्दर्य, काम, सुख-वैभव, कला आदि का कारक होता है। इसके साथ ही यज्ञोपवीत को पीले रंग से रंगा जाता है। यह रंग गुरु बृहस्पति से संबंध रखता है। बृहस्पति ग्रह ज्ञान, धर्म, गुरु, अच्छे कर्मों आदि का कारक माना जाता है।
जनेऊ संस्कार की विधि
- जनेऊ संस्कार के लिए एक यज्ञ का आयोजन होता है।
- इस दौरान जिस बालक का संस्कार होता है वह सहपरिवार यज्ञ में हिस्सा लेता है।
- जनेऊ पूर्ण विधि के अनुसार बाएँ कंधे से दाएँ बाजू की ओर शरीर में धारण किया जाता है।
- जनेऊ के समय बिना सिले वस्त्र धारण किया जाता है।
- इस दौरान हाथ में एक दंड लिया जाता है।
- गले में पीले रंग का एक वस्त्र डाला जाता है।
- मुंडन के पश्चात एक चोटी रखी जाती है।
- पैरों में खड़ाऊ होती हैं।
- इस दौरान मेखला या कोपीन धारण की जाती है।
- यज्ञ के दौरान सूत्र को विशेष विधि से बनाया जाता है।
- यज्ञोपवीत को पीले रंग से रंगा जाता है।
- गुरु दीक्षा के बाद ही इसे हमेशा धारण किया जाता है।
ऐसे किया जाता है संस्कार
- जनेऊ संस्कार के दिन बालक का मुंडन करवाया जाता है।
- स्नान के बाद उसके सिर पर चंदन केसर का लेप लगाया जाता है और उसे जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं।
- फिर हवन का आयोजन होता है और विधिपूर्वक देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है।
- इसके पश्चात दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
- इसके बाद उसकी उम्र के बच्चों के साथ बिठाकर चूरमा खिलाते हैं।
- फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर उस बालक से कहता है कि “आज से तू अब ब्राह्मण हुआ”।
- इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं।
- तत्पश्चात् वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।
- शाम को खाना खाने के पश्चात् दंड को कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि “मैं पढ़ने के लिए काशी जा रहा हूँ”।
- बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं।
- इसके बाद ही बालक ब्राह्मण मान लिया जाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार हेतु मंत्र –
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
जनेऊ संस्कार से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें
- किसी भी मांगलिक कार्य से पहले जनेऊ पहनना अनिवार्य है।
- विवाह के लिए यह संस्कार ज़रुरी है, क्योंकि इसके बिना विवाह नहीं होता है।
- मल-मूल विसर्जन के समय जनेऊ को दाहिने कान से लपेटना अनिवार्य होता है।
- अगर जनेऊ का कोई सूत्र टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए तो यह बदल लेना चाहिए।
- जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परंपरा है।
- साफ करने के लिए इसे कण्ठ में घुमाकर धो लें। यदि ये भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करके इसे बदल लेने का नियम है।
- देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें।
- बालक उपरोक्त नियमों के पालन करने योग्य हो जाए, तभी उनका यह संस्कार करें।
- जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है। क्योंकि इसे धारण करने वाले बालक को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्र ग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि सम्मिलित हैं।
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