हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं में कुछ ऐसे बड़े दानवीर हुए हैं जिनके बारे हमें अवश्य जानना चाहिए। क्योंकि उनके द्वारा किए गए दान उन्हें अमर कर गए हैं। हिन्दू धर्म में दान को एक पवित्र कार्य माना जाता है। इसलिए हर शुभ अवसर हमारे यहाँ दान देने का प्रचलन है। दान से ही व्यक्ति महान बनता है साथ ही इससे किसी व्यक्ति, समाज और संस्था का कल्याण भी हो जाता है और
यही दान करने का वास्तविक उद्देश्य भी है। लेकिन यदि दान के पीछे किसी का स्वार्थ छिपा हो तो वह असल में दान नहीं कहलाता है। सनातनी परंपरा में ऐसे दानवीर हुए हैं जिन्होंने दान के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वे दान धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटे। उन दानवीरों का जिक्र हम यहाँ कर रहे हैं।
कर्ण
महाभारत के युद्ध में कुंती पुत्र कर्ण कौरवों के साथ पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध लड़ रहे थे। वे बड़े महान धनुर्धर योद्धा थे। उनके कुंडल और कवच उन्हें युद्ध में अजय बनाते थे। कुंडल और कवच के कारण कर्ण को कोई भी शस्त्र मार नहीं सकता था। लेकिन भिक्षुक के वेश में आए इंद्र ने जब उनसे कुंडल और कवच माँगे तो उन्होंने हँसते हुए उन्हें दान कर दिया। बाद में इन्हीं के अभाव से कुरुक्षेत्र के मैदान कर्ण मृत्यु को प्राप्त हुए।
राजा बलि
दानवीरों में राजा बलि का भी प्रमुख स्थान है। एक समय में उन्होंने पृथ्वी और देव लोक पर अपना कब्जा कर लिया था। लेकिन वामन अवतार में आए भगवान विष्णु जी ने उनसे केवल तीन पग भूमि मांगने की इच्छा जताई। राजा ने उनकी इस माँग को स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि विष्णु जी दोनों ही पग में दोनों लोकों को नाप लिया। इसके बाद उन्होंने राजा बलि के पास कुछ देने को नहीं रहा तो उन्होंने तीसरा पैर अपने सिर पर रखा लिया। भगवान विष्णु उनके दान से प्रसन्न हुए और उन्हें पाताल लोक में रहने का निर्देश दिया।
महर्षि दधीचि
देवताओं के राजा इंद्र को अपनी अस्थियाँ दान करने वाले महर्षि दधीचि ने दान के लिए अपना शरीर तक को त्याग दिया था। उनकी इन्हीं हड्डियों से महाशक्तिशाली वज्र नामक शस्त्र बनाया गया और इसी वज्र से इंद्र ने देवताओं को युद्ध में परास्त किया था। महर्षि दधीचि के इस दान उन्हें सदा के लिए अमर कर दिया।
सत्यवादी राजा हरीश चंद्र
सत्यवादी राजा हरीश चंद्र अयोध्या के राजा सत्यव्रत के पुत्र थे। अपने दानी स्वभाव के कारण उन्होंने महर्षि विश्वामित्र को अपने संपूर्ण राजपाठ दान कर दिया। इसके बाद उन्होंने अनेक कष्टों को सहना पड़ा। सत्य के मार्ग पर चलते हुए उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्र तथा स्वयं को बेच दिया था। वे सत्यवादी और महादानी थे।
बर्बरीक
महाभारत के समय बर्बरीक नामक 14 वर्षीय बालक एक महान धनुर्धर था। धनुर विद्या में कर्ण, अर्जुन और स्वयं भीष्म पितामह उनके सामने कुछ भी नहीं थे। बर्बरीक ने अपनी माता को यह वचन दिया था कि मैं युद्ध में कमज़ोर पक्ष यानि कौरवों का साथ दुंगा। ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ये जानते थे कि यदि बर्बरीक युद्ध में शामिल हुआ तो परिणाम पाण्डवों के विरुद्ध हो सकता है। इसलिए उन्होंने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और बर्बरीक के पास जाकर उसका शीश दान में माँग लिया। दानी स्वभाव के कारण बर्बरीक ने अपना शीश दान कर दिया।
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