आज मनुष्य तंत्र-साधना को प्राप्त कर अलौकिक और चमत्कारिक शक्तियों को हासिल करने की चाह में क्या कुछ नहीं कर रहा है। इन शक्तियों की चाहत ही उसे आज देशभर के तंत्र-साधना के विभिन्न शक्तिपीठों के प्रति आकर्षित करती है। इन शक्तिपीठों और मंदिरों में सबसे पहले जिनका नाम आता है वो हैं: कोलकाता की कालीघाट, वीरभूम की तारापीठ, कामरूप का कामख्या मंदिर, रजरप्पा की छिन्नमस्ता, आदि। ये सभी सिद्धपीठों को तांत्रिकों की सिद्धभूमि तो माना जाता ही है, साथ ही इनकी पौराणिक और धार्मिक महत्वता के चलते आज ये आम लोगों एक लिए भी मुख्य केंद्र बनते जा रह हैं।
तारापीठ का पूजन ‘आँख के स्थल’ के रूप में होता है
इन्ही में से आज हम बात करेंगे पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित काली घाट शक्तिपीठ की जो मुख्य तौर से माँ तारा देवी को समर्पित है। तारापीठ, जिसमें तारा का अर्थ होता है ‘आँख’ और पीठ का अर्थ है ‘स्थल’। ऐसे में नाम के ही अनुरूप यह मंदिर आँख के स्थल के रूप में देशभर में पूजा जाता है।
तारापीठ के निर्माण का इतिहास
इस मंदिर का आपको धार्मिक महत्व तो देखने को मिलता ही है साथ ही इस मंदिर का उल्लेख आपको कई धार्मिक कथाओ में भी सुनने को मिल जाएगा। पौराणिक कथाओं के अनुसार जहाँ ये मंदिर निर्मित है वहीं माँ सती की आँखें यानी उनके तारा गिरे थे, जिसके चलते सालों बाद इस मंदिर की स्थापना की गई।
इस मंदिर की स्थापना को लेकर भी कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। इसमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी के अनुसार, वैदिक काल में इसी जगह पर महर्षि वशिष्ठ ने माँ की कठिन पूजा -आराधाना की थी। जिसके बाद ही उन्हें अनेकों सिद्धियां और शक्तियां प्राप्त हुई थी। माना जाता है कि इसके बाद ही महर्षि वशिष्ठ ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था, लेकिन समय के साथ उनके द्वारा बनवाया गया प्राचीन मंदिर धीरे-धीरे धरा की गोढ़ में समा गया और अब जो मंदिर है जिसे तारापीठ कहते है जिसे माँ के एक सबसे बड़े भक्त जयव्रत ने बनवाया था।
जब मां तारा ने पिलाया था भगवान शिव को अमृत
यह मंदिर तारा देवी के श्रद्धालुओं के बीच तो प्रसिद्ध है ही साथ ही ये जगह तांत्रिक क्रियाकलापो के लिए भी विश्व भर में जानी जाती है। माना जाता है कि तांत्रिक संबंधों के चलते प्राचीन काल में यह जगह चंदीपुर के नाम से विख़्यात थी जिसे अब तारापीठ के नाम से जाना जाता है। अगर इस अनोखे मंदिर की बनावट की बात करें तो:-
–तारापीठ मंदिर ना ही ज्यादा बड़ा है और ना ही छोटा।
-ये मंदिर संगमरमर के मार्बल से बना हुआ है।
-जिसकी छत ढ़लानदार है, इसे आम भाषा में ढोचाला कहते है।
-मंदिर में मुख्य द्वार पर आपको भारतीय कला और कारीगरी का सुन्दर व अदभुद नमुना देखने को मिलता है।
-इस मंदिर में आपको साक्षात मां तारा देवी के दर्शन करने को मिलते है।
-देवी तारा की यहाँ स्थापित प्राचीन मूर्ति बेहद अनोखी है क्योंकि इसमें मां के मुख पर तीन आँखें है और पूरा मुख लाल सिंदुर से हमेशा रंगा हुआ रहता है।
-तारा देवी के साथ ही आपको यहाँ भगवान शिव के भी दर्शन करने को मिलते हैं।
-यहाँ आपको बाहरी आवरण के नीचे मां तारा की शिला प्रतिमा दिखाई देगी जिसमें मां भगवान शिव को अपनी गोद में लेकर उन्हें स्तनपान करा रही हैं।
-मां और भगवान शिव की इस प्रतिमा के विषय में माना जाता है कि जब भगवान शिव ने विष पान किया था तब सभी देवी-देवताओं के आग्रह पर मां तारा ने ही भगवान शिव को स्तनपान कराते हुए उन्हें अमृत पिलाया था। इस अमृत से ही महादेव को विष की जलन से मुक्ति मिली थी।
-इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में माँ को स्नान कराए जाने वाला पवित्र जल और मदिरा ही दी जाती हैं।
तारापीठ मंदिर से जुड़े कुछ अनोखे तथ्य
-आपको जानकार हैरानी होगी कि तारापीठ पर आने वाला हर श्रद्धालु यहाँ की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन ज़रूर कराता है। क्योंकि माना जाता है कि यहाँ आने वाले व्यक्ति की मनोकामना तभी पूरी होती है जब वो श्मशान में हवन प्रक्रिया को पूरा करता है।
-यहाँ रात के अंधेरे में तांत्रिकों द्वारा विशेष पूजा भी की जाती है।
-तारापीठ धाम की सबसे मुख्य और ख़ासियत यहाँ का महाश्मशान है। जो मंदिर से थोड़ा हटकर बिलकांदी गाँव में नदी के किनारे स्थित है।
-मान्यता अनुसार इस महाश्मशान में जिस भी दिन मुर्दे नहीं जलते, उस दिन माँ तारा को भोग नहीं चढ़ता और न ही यहाँ के तांत्रिक कुछ खाते-पीते हैं। स्थानीय तांत्रिकों द्वारा इस स्थिति को मां तारा का ‘आदिनियम’ माना जाता है।
-धार्मिक विशेषज्ञों अनुसार माता पार्वती के चंडी स्वरूप को तारापीठ की आराध्य देवी माना गया है। इसके पीछे आपको कई पौराणिक कथाएं सुनने को मिल जाएंगी।
-शास्त्रों अनुसार मां पार्वती ने अपने चंडी अवतार में चंडासूर का वध किया था इसलिए ही उनका नाम चंडी पड़ा। जैसा हमने पहले ही बताया कि तारापीठ का नाम पहले चंडीपुर था। जो बाद में तारापीठ हो गया।
नवरात्रि पर होता है भव्य पूजा का आयोजन
तारापीठ में हर साल लाखों की तदाद में भक्त मंदिर के दर्शन करने आते हैं। विशेषतौर से नवरात्रि में अष्टमी के दिन यहाँ मां तारा की दिन में तीन बार आरती होती है। इसके अलावा पूरे साल दो बार आरती की जाती है।
इसके साथ ही विजयादशमी पर यहाँ दो दिवसीय उत्सव मनाया जाता है। जिस दौरान विजयादशमी के दो दिन बाद त्रयोदशी के दिन मां तारा को मंदिर के गर्भ गृह से बाहर मंदिर परिसर में लाकर उनकी पूजा-आराधना किये जाने का विधान है।
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