ओसला गांव : उत्तराखंड का वो इलाका जहां के लोग दुर्योधन की मौत पर इतना रोए कि नदी बन गयी

मान्यता है कि सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा की जाती है लेकिन यह मान्यता उत्तराखंड एक खास जगह पर पहुँच कर बदल जाती है। उत्तराखंड भले ही “देवभूमि” हो लेकिन उत्तराखंड में एक ऐसी जगह भी है जहां का राजा गांधारी का पुत्र दुर्योधन हुआ करता था और आज भी वहाँ के लोग उसकी पूजा करते हैं। आज हम आपको इस लेख में उसी एक जगह के बारे में बताएँगे जहां न सिर्फ दुर्योधन की पूजा होती है बल्कि उसे देवता का दर्जा प्राप्त है।

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कहते हैं कि महाभारत काल के दौरान एक दिन विचरण करते हुए दुर्योधन उत्तराखंड के एक ऐसी जगह पर पहुंचा जहां की खूबसूरती ने उसका मन इतना मोह लिया कि उसने वहीं बस जाने का मन बना लिया। यह जगह थी हिमालय के गढ़वाल इलाके में बसा जौनसार बावर अंचल का ओसला गाँव। 

जब दुर्योधन ओसला गांव पहुंचा तो उसे गांव के संरक्षक देवता महासू के बारे में पता चला। दुर्योधन ने महासू देवता की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न किया और बदले में महासू देवता ने दुर्योधन को वो गांव सौंप दिया। सुनने में यह बड़ा अजीब लगे लेकिन दुराचारी दुर्योधन ने उस गांव के लोगों का बहुत खयाल रखा और उनकी हर तरह से सहायता की। वह वहाँ इतना लोकप्रिय हुआ कि गांव के लोगों ने दुर्योधन का एक मंदिर बनवाया और उसकी पूजा करनी शुरू कर दी। तब से लेकर वह मंदिर आज भी वहाँ मौजूद है। 

ओसला गांव के लोग उस मंदिर को “देव महाराज का मंदिर” बताते हैं। हर वर्ष हिन्दू कैलेंडर के अनुसार पौष महीने की पांचवी तारीख को इस मंदिर से दुर्योधन की शोभायात्रा निकलती है और यह शोभायात्रा मोरी तालुका के फ़ितरी गांव से होते हुए कोटगांव  और दतमीर के इलाके से होकर 20 दिनों बाद वापस ओसला गांव के मंदिर पहुँचती है। इस शोभायात्रा में गांव की जनता और मुखिया समेत मंदिर के मुख्य पुजारी शामिल होते हैं।

दुर्योधन यहाँ के लोगों को कितना प्रिय था इस बात का अंदाजा एक किस्से से मिलता है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध में दुर्योधन की मृत्यु हुई तो पूरा गांव शोक में डूब गया और गांव के लोग इतना रोए कि उस स्थान पर उनके आंसुओं से एक नदी बन गयी जिसे तमसा नाम दिया गया। वो तमसा नदी आज भी वहाँ मौजूद है और अब उसे टोन्स नदी के नाम से जाना जाता है। हालांकि इस नदी के जल का किसी शुभ काम में इस्तेमाल नहीं होता है क्योंकि इसे मातम की नदी माना जाता है। मंदिर के बगल में ही एक लोहे का बहुत बड़ा कोठार है जिसे गांव के लोग दुर्योधन का कोठार मानते हैं। उनका कहना है कि दुर्योधन जब यहाँ आये थे तो इसी कोठार में रहते थे। गांव के लोग आज भी दुर्योधन को उस गांव का संरक्षक मानते हैं।

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तो अगली बार आप कभी उत्तराखंड जाएँ या फिर फिलहाल उत्तराखंड में इस इलाके के आसपास मौजूद हैं तो इस मंदिर के दर्शन जरूर करें। वैसे एक गांव और है जहाँ दुर्योधन की पूजा होती है लेकिन उसकी कहानी फिर कभी। 

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