भगवान कार्तिकेय की एक नहीं बल्कि अनेक माताएं थीं, जानिए जन्म से जुड़ी अद्भुत कथा

भगवान शिव के दो पुत्र हैं। एक का नाम गणेश और दूसरे का नाम कार्तिकेय। यह बात आप सब जानते होंगे लेकिन अगर हम आपसे पूछें कि बताइये भगवान कार्तिकेय की कितनी माताएँ थीं तो आप सब हो सकता है कि थोड़े से अचरज में पड़ जाएँ क्योंकि साधारणतः लोग यही जानकारी रखते हैं कि माता पार्वती ही भगवान कार्तिकेय की माता थीं। लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल भगवान कार्तिकेय के जन्म से जुड़ी दो अलग-अलग घटनाएँ हैं जो कि बताता है कि भगवान कार्तिकेय की एक नहीं बल्कि अनेक माताएं थीं। आज इस लेख में हम उन्हीं घटनाओं का जिक्र करेंगे ताकि आपको भगवान कार्तिकेय के जन्म से जुड़ी इस अद्भुत घटना की जानकारी हो सके।

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भगवान कार्तिकेय के जन्म को लेकर दो कथाएँ हैं। 

पहली कथा

देवदत्त पटनायक की पुस्तक ‘देवलोक देवदत्त पटनायक के संग-02’ में  भगवान कार्तिकेय के जन्म से जुड़ी पहली कथा का जिक्र मिलता है। इस पहली कथा के अनुसार मान्यता है कि भगवान शिव का जब विवाह होता है तब उनकी पत्नी यानी कि माँ पार्वती माता बनने की इच्छा प्रकट करती हैं लेकिन शिव कहते हैं कि वे स्वयंभू हैं, अनादि है और अनंत भी, ऐसे में उन्हें पुत्र की क्या जरूरत है। यानी कि शिव स्वयं से उत्पन्न हुए हैं, ना कि पैदा हुए हैं। उनकी ना तो कोई शुरुआत है और ना ही कोई अंत। ऐसे में भगवान शिव को पुत्र की क्या ही जरूरत है। लेकिन उनकी अर्धांगिनी पुत्र के लिए हठ करने लगती हैं। जिसके बाद भगवान शिव अपना बीज माता को देने के लिए राजी हो जाते हैं।

लेकिन यहां एक बहुत ही अजीब सी स्थिति पैदा हो जाती है। सभी देवी-देवता भगवान शिव और माता पार्वती को यह स्मरण करवाते हैं कि भगवान शिव के बीज में इतना तेज है कि उसे कोई एक गर्भ धारण ही नहीं कर सकता है। ऐसे में इस बीज को कई गर्भों में स्थान देना होगा।

कथा के अनुसार सबसे पहले इस बीज को वायु देवता ने शांत करने की कोशिश की लेकिन यह इतना गर्म था कि वायु की शीतलता भी इसे ठंडा नहीं कर पाई। वायु ने इस बीज को अग्नि को सौंप दिया लेकिन अग्नि से भी इस बीज का ताप सहन नहीं हो पाया और उसने इस बीज को माता गंगा को सौंप दिया। 

माँ गंगा ने जब इसे ग्रहण किया तो उनकी नदी का सारा जल इस बीज के ताप से खौलने लगा और नदी के लहरों से यह बीज छह हिस्सों में बंट गया। माँ गंगा ने फिर इसे नदी के निकट ही मौजूद शर वन को सौंप दिया। फलस्वरूप शर वन जल कर भस्म हो गया। कहते हैं कि इसी शर वन की राख़ से छह बालकों ने जन्म लिया।

नवजात शिशु जन्म के साथ रोने लगे तब कृतिका नक्षत्र की छह कृतिकाएं धरती पर आयीं और उन छह शिशुओं को स्तनपान करवा के शांत किया। इसी वजह से भगवान शिव के इस पुत्र का नाम कार्तिकेय पड़ा। बाद में माता पार्वती ने इन छह शिशुओं को एक कर दिया और इस तरह भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ। भगवान कार्तिकेय इस वजह से ही बहुत सी जगहों पर छह मुख के साथ दिखाये जाते हैं।

दूसरी कथा

दूसरी कथा के अनुसार तारकासुर नामक दैत्य को यह वरदान प्राप्त था कि उसका वध सिर्फ भगवान शिव के पुत्र ही कर सकते थे। लेकिन भगवान शिव और माता पार्वती विवाह के तुरंत बाद देवदारु वन की एक गुफा में एकांतवास के लिए चले गए थे। 

ऐसे में सभी देवताओं ने तारकसुर के आतंक से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने की ठानी और वे सभी देवदारु वन की तरफ चल दिए। लेकिन वहाँ पहुँच कर किसी भी देवता में यह साहस उत्पन्न नहीं हो पाया कि वो गुफा में प्रवेश करने का साहस करे। 

ऐसे में अग्नि देवता ने यह जोखिम उठाया और गुफा में प्रवेश कर कबूतर रूप में भगवान शिव का बीज ग्रहण कर लिया। लेकिन इसका ताप उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने इसे माँ गंगा को सौंप दिया और फिर माँ गंगा ने इसे शर वन में डाल दिया था जिसकी राख़ से कार्तिकेय जी का जन्म हुआ था।

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कुल मिला कर दोनों ही कथाओं से एक ही बात सिद्ध होती है कि भगवान कार्तिकेय के पिता तो एक थे। लेकिन उनकी माताएँ कई थीं। इसमें कृतिका नक्षत्र की वो छह कृतिकाएन भी थीं जिन्होंने भगवान कार्तिकेय को स्तनपान करवाया, माँ गंगा भी थीं, शर वन और अग्नि देव भी थे। अंत में माता पार्वती को तो उनकी माता का दर्जा प्राप्त था ही।

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