जानें रोहिणी व्रत का जैन धर्म में क्या है महत्व

भारत में जैन धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यक हैं, लेकिन इसके बावजूद भी वे आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न हैं। यहाँ हम जैन धर्म का जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज रोहिणी व्रत है, जो जैन समुदाय से संबंध रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण दिवस है। आज के दिन जैन धर्म के लोग रोहिणी व्रत रखते हैं। आज हम इस खबर के माध्यम से रोहिणी व्रत के महत्व को जानेंगे। 

जैन धर्म में रोहिणी व्रत का महत्व

हिन्दू पंचांग के अनुसार रोहिणी एक नक्षत्र का नाम है। जैन धर्म और हिन्दू धर्म में नक्षत्रों की मान्यता समान है। जैन धर्म में महिलाओं के द्वारा रोहिणी व्रत किया जाता है। इस व्रत को रखने का मुख्य उद्देश्य ये है कि महिलाएँ अपने परिवार की सुख-शांति एवं अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती हैं। इसके साथ ही आत्मशुद्धि के लिए भी यह व्रत रखा जाता है। चूंकि यह व्रत प्रत्येक महीने में आता है। धार्मिक परंपरा के अनुसार, इस व्रत का पालन 5 वर्ष 5 माह तक नियमित किया जाता है। 

विशेष बात ये है कि इस व्रत का पालन रोहिणी नक्षत्र से शुरु होता है और अगले नक्षत्र मार्गशीर्ष तक चलता है। जैन महिलाएँ सुबह जल्दी उठकर स्नान करती हैं तथा पवित्र होकर पूजा करती हैं। रोहिणी व्रत के दिन गरीबों और जरुरतमंद लोगों को दान देने का भी महत्व है।

रोहिणी व्रत में वासुपूज्य देव की आराधना की जाती है। भगवान वासुपूज्यनाथ जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर हैं। जैन मतानुसार, प्रभु वासुपूज्य का जन्म चम्पापुरी में इक्ष्वाकु वंश के महान राजा वासुपूज्य की पत्नी जया देवी के गर्भ से फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में हुआ था। इनके शरीर का वर्ण लाल और चिह्न भैंसा था।

रोहिणी व्रत कथा

किसी भी व्रत में व्रत कथा का विशेष महत्व होता है। यदि व्रत के दौरान व्रत कथा नहीं पढ़ी या कही जाती है तो व्रत का वास्तविक फल व्रती को नहीं मिलता है। अतः रोहिणी व्रत से भी एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। जो इस प्रकार है। प्राचीन समय में एक धन मित्र नाम का राजा था। उसकी पुत्री का नाम दुर्गंधा था। 

दरअसल उसकी पुत्री से दुर्गंध आती थी। ऐसे में राजा चिंतित था कि उसकी पुत्री से विवाह कौन करेगा। वहीं दूसरे नगर में वस्तुपाल नामक राजा रहता था, जो कि धन मित्र का मित्र था। उसका एक पुत्र था। ऐसे में धनमित्र ने वस्तुपाल को ये कहते हुए मना लिया कि उसकी बेटी की शादी वस्तुपाल के बेट से होगी। दोनों संबंधी बन गए। दुर्गंधा का विवाह उस युवराज से तो हो गया, किंतु एक महीने के भीतर ही उसने दुर्घंधा को छोड़ दिया। 

दुर्गंधा वापस अपने पिता धनमित्र के पास रहने लगी। एक बार राजा के यहाँ मुनिराज पधारे। तब लाचार राजा ने अपने पुत्री के उद्धार के बारे में पूछा। मुनिवर ने कहा कि पिछले जन्म में तेरी कन्या ने एक मुनिवर को जहर देकर मार दिया था और इसी कारण उसे इस जन्म में ये सब सहना पड़ रहा है। 

यह पूर्ण वृतांत सुनकर धनमित्र ने पूछा – हे मुनि! कोई व्रत विधानादि धर्मकार्य बताइये जिससे मेरी पुत्री की यह पीड़ा दूर हो, तब स्वामी ने कहा – सम्‍यग्दर्शन सहित रोहिणी व्रत पालन करो, अर्थात् प्रति मास में रोहिणी नामक नक्षत्र जिस दिन आये, उस दिन चारों प्रकार के आहार का त्‍याग करें और श्री जिन चैत्‍यालय में जाकर धर्मध्‍यान सहित सोलह प्रहर व्‍यतीत करें अर्थात् सामायिक, स्‍वाध्याय, धर्मचर्चा, पूजा, अभिषेक आदि में समय बितावे और स्‍वशक्ति दान करें। इस प्रकार यह व्रत 5 वर्ष और 5 मास तक करें।