जानें ऋषि पंचमी पर व्रत करने की पौराणिक महत्वता, व्रत कथा एवं इसके पूजन की संपूर्ण विधि।
भारत को हमेशा से ही ऋषि-मुनियों का जन्मस्थल माना जाता रहा है। इसी कारण हिन्दू धर्म में ऋषि पंचमी का महत्व पौराणिक काल से ही विशेष बताया गया है। जिस दिन व्रत का श्रद्धा अनुसार पालन करने से व्यक्ति कलयुग के अपने सभी दोषों से मुक्ति पा सकता है। ऋषि पंचमी हर वर्ष एक पर्व की तरह नहीं बल्कि एक व्रत की भांति मनाई जाती है, जिसका व्रत मुख्य तौर से सप्त ऋषि को समर्पित होता है। इस दिन महिलाएं इन सातों ऋषियों की पूजा कर उनसे धन-धान्य, समृद्धि, संतान प्राप्ति तथा सुख-शांति की कामना करते हुए व्रत रखती हैं।
कब रखा जाएगा ऋषि पंचमी 2019 का व्रत
हिन्दू पंचांग अनुसार ऋषि पंचमी का ये पवित्र व्रत हर वर्ष भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को रखे जानें का विधान है। वहीं अंग्रेजी कैलेंडर अनुसार यह व्रत हर साल अगस्त या सितम्बर महीने में आता हैं। वर्ष 2019 में ये पवित्र ऋषि पंचमी का व्रत 3 सितम्बर 2019, दिन मंगलवार को देशभर में रखा जाएगा। जिस दौरान महिलाएं सात ऋषियों के प्रति अपनी श्रद्धा, कृतज्ञता, समर्पण, व सम्मान दर्शाएगी।
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ऋषि पंचमी व्रत पूजा महत्व
सनातन धर्म में किसी भी पूजा या आराधना के लिए पवित्रता का बहुत अधिक महत्व होता हैं। पुराने वक्त में माहवारी के समय महिलाओं के लिए पूजा-आराधना के लिए कई तरह के नियम क़ायदे, बताए गए थे, और कहा गया कि इन नियमों का पालन न होने से दोष लगता है। इस दोष के निवारण के लिए महिलाएं इस व्रत का पालन करती हैं।
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ऋषि पंचमी व्रत कथा
ऋषि पंचमी व्रत के संदर्भ में भगवान ब्रह्मा ने इस व्रत को कलयुग में सभी पापों से दूर करने वाला विशेष व्रत बताया है। जिसका श्रद्धा अनुसार पालन करने से महिलाओं को अपने हर दोष से मुक्ति मिलती है। इस व्रत के पूजन की कथा के अनुसार, पौराणिक काल में एक राज्य में ब्राह्मण पति पत्नी बेहद प्रेम-भाव के साथ रहते थे। दोनों ही पति-पत्नी धर्म पालन में अग्रणी थे। उनकी दो संताने भी थी एक पुत्र एवं दूसरी पुत्री। बेटी के विवाह योग्य होने पर दोनों ब्राहमण दंपति ने उसका विवाह एक अच्छे कुल में किया। परन्तु विवाह के कुछ समय बाद ही बेटी के पति की किसी कारण वश मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु होने के बाद ब्राह्मण की बेटी अपने वैधव्य व्रत का पालन करने हेतु नदी किनारे एक कुटियाँ में रहने लगी। कुछ समय बाद ही विधवा बेटी के शरीर में कीड़े पड़ने लगे। बेटी के इस दुर्दशा को देख ब्राह्मणी मां रोने लगी और उसने ब्राहमण पति से बेटी की इस दशा का कारण पूछा। जिसके बाद ब्राहमण ने अपनी दिव्य शक्ति से अपनी बेटी के पूर्व जन्म को देखा, जिस दौरान उसे ज्ञात हुआ कि पूर्व जन्म में उसकी बेटी ने अपनी माहवारी के समय नियमों का पालन नहीं किया और वर्तमान जन्म में दोष से मुक्ति पाने के लिए ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसी कारण उसके जीवन में सौभाग्य नहीं हैं और उसकी ये दशा हो रही है। पिता द्वारा बताए जाने के बाद ही ब्राह्मण की पुत्री ने पूरे विधि विधान के साथ ऋषि पंचमी के व्रत का पालन शुरू कर दिया। जिसके पश्चात उसे अगले जन्म में पूर्ण सौभाग्य की प्राप्ति हुई।
ऋषि पंचमी व्रत पूजा विधि
इस व्रत की पूजा विधि दूसरे व्रतों से थोड़ी अलग होती है:-
- इस व्रत वाले दिन महिलाओं को प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान-ध्यान करके स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिए।
- इसके बाद घर के पूजा गृह में गोबर से चौक लगाकर या अच्छी तरह साफ़-सफाई कर उसे शुद्ध कर लें।
- इसके बाद पूजा स्थान पर ऐपन से सप्त ऋषि बनाकर उनके समक्ष व्रत करने का संकल्प लें।
- इसके बाद सप्तऋषि की सच्ची श्रद्धा-भाव से पूजा करें।
- इसके बाद पूजा स्थान पर एक कलश की स्थापना करें। इस दौरान मिट्टी के ही कलश का प्रयोग करें।
- इसके पश्चात सप्तऋषि के समक्ष दीप, दूप एवं अन्य पूजन सामग्री अर्पित कर व्रत की कथा सुने व दूसरों को भी सुनाए।
- इसके बाद सप्तऋषि को भोग के लिए बनाया गया मीठा पकवान अर्पित करें।
- इसके बाद रात्रि में केवल एक समय ही महिलाओं को व्रत खोलकर भोजन करना होता है। जिसमें हल का बोया कोई भी अनाज नहीं खाना चाहिए। केवल पसई धान के चावल ही इस दौरान खाए जाते हैं।
ऋषि पंचमी उद्यापन विधि
माना जाता है कि इस व्रत को महिलाओं को हर वर्ष करना आवश्यक होता है। वृद्धावस्था में ही व्रत का उद्यापन किया जाता हैं। इसके उद्यापन के दौरान भी कुछ विशेष नियमों का पालन किया जाता है:-
- इस व्रत के उद्यापन के लिए विधि पूर्वक पूजा कर ब्राहमण भोज करवाया जाता हैं।
- इस दौरान भोज के लिए सात ब्रह्मणों को सप्त ऋषि का रूप मानकर उन्हें वस्त्र, अन्न, दान, दक्षिणा, अपनी श्रद्धा अनुसार दी जाती है।
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ऋषि पंचमी व्रत का पौराणिक महत्व
हिन्दू पौराणिक मान्यताओं अनुसार कहा जाता है कि महाभारत के काल के समय अभिमन्यु वधु उत्तरा के गर्म पर अश्व्थामा द्वारा प्रहार करने से उनका गर्भ नष्ट हो गया था, जिसके बाद उत्तरा ने इस व्रत का श्रद्धा पूर्वक पालन किया और इसके परिणामस्वरूप उनका गर्भ पुनः जीवित हुआ और हस्तिनापुर को राजा परीक्षित के रूप में उत्तराधिकारी मिल सका। राजा परीक्षित को पुन: जन्म मिलने के कारण उन्हें अपनी मां उत्तरा के गर्भपात के दोष से मुक्त होने पर गर्भ में ही द्विज (जिसका दो बार जन्म हो) कहा गया था। इसी कारण इस व्रत का पालन करने से माना जाता है कि न केवल महिलाओं को दोषों से मुक्ति मिलती है बल्कि इसके साथ-साथ उन्हें संतान प्राप्ति एवं अपने दांपत्य जीवन में भी सुख सुविधाओं की प्राप्ति मिलती है। ऐसे में हर स्त्री को इस व्रत का पालन करना ज़रूरी होता है। यह व्रत महिलाओं के जीवन की दुर्गति को समाप्त कर उन्हें पाप मुक्त जीवन प्रदान करता है।
आपको ऋषि पंचमी 2019 की हार्दिक शुभकामनाएँ। आपको हमारा ये लेख कैसा लगा हमे अवश्य कमेंट कर बताएं।