जैन धर्म में मेरु त्रयोदशी (Meru Trayodashi) बेहद ही खास महत्व रखता है। मेरु त्रयोदशी का यह पर्व हर साल माघ महीने में मनाया जाता है। इस दिन जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा का विधान बताया गया है। मेरु त्रयोदशी का यह पर्व 9 फरवरी-2021 मंगलवार के दिन मनाया जाएगा। अब जानते हैं जैन धर्म में इस दिन का इतना महत्व क्यों है? साथ ही जानते हैं इस दिन क्या करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है? मेरु त्रयोदशी के दिन भगवान ऋषभदेव को निर्वाण प्राप्त हुआ था।
मेरु त्रयोदशी का महत्व (Meru Trayodashi Mahatva)
जैन धर्म के ग्रंथों के अनुसार जो कोई भी मनुष्य इस दिन सच्ची आस्था से व्रत-उपवास तप और जाप करता है उसे इस जीवन में भौतिक सुखों से परे आंतरिक सुख का प्राप्त होता है। साथ ही इस व्रत को करने से इंसान को मोक्ष की प्राप्ति होती है। हालांकि मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि, पांच मेरु का संकल्प पूरा होना चाहिए। इस दिन इस मंत्र का जाप करना बेहद ही शुभ बताया गया है। मंत्र : ॐ रहीम्, श्रीम् अदिनाथ पारंगत्या नम: मंत्र।
मेरु त्रयोदशी का यह त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार यह त्यौहार सच्चाई और दृढ़ता के साथ जीवन को सत्य की राह पर चलने की सीख देता है।
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जैन धर्म ग्रंथों में भगवान ऋषभनाथ का उल्लेख कई नामों से मिलता है। उन्हें आदि-नाथ (विश्व के पहले गुरु), आदीश जिन (पहला विजेता), आदि पुरुष (पहला परिपूर्ण पुरुष), इक्क्षवाकु, विधाता आदि नामों से संबोधित किया गया है। भगवान ऋषभदेव का उल्लेख कई हिंदू धर्मग्रंथों में भी मिलता है। ऋग्वेद में ऋषभदेव की चर्चा वृषभनाथ और कहीं-कहीं वातरशना मुनि के रूप में मिलती है। शिवपुराण में उन्हें शिव के 28 अवतारों में से एक माना गया है।
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मेरु त्रयोदशी पूजन विधि (Meru Trayodashi Puja Vidhi)
- मेरु त्रयोदशी के दिन निर्जला व्रत रखा जाता है।
- इसके बाद जातक भगवान ऋषभनाथ या ऋषभदेव की प्रतिमा या मूर्ति के सामने चाँदी से बने पांच मेरु रखते हैं।
- इसमें बीच में एक बड़ा मेरु होता है और उसके चारों ओर चार छोटे-छोटे मेरु रखे जाते हैं।
- यह छोटे-छोटे चारों मेरु के सामने श्रद्धालु स्वास्तिक का निशान बनाते हैं और इसके पास भगवान ऋषभदेव की पूजा करते हैं।
- इस दिन की पूजा में इस मंत्र का जाप करना बेहद ही शुभ माना गया है। मंत्र: ॐ ह्रीम श्रीम् ऋषभदेव परमगत्या नम:
- जो लोग मेरु त्रयोदशी के दिन व्रत रखते हैं उन्हें किसी मठवासी को दान पुण्य आदि देने के बाद ही व्रत खोलना चाहिए। तभी यह व्रत पूरा और सिद्ध माना जाता है।
- इस दिन उपवास रखने वाले भक्तों को 13 साल और 13 महीने तक एक ही परंपरा का पालन करना होता है । इसके अलावा इस मंत्र का जाप करना भी काफी शुभ माना जाता है –“ॐ रं श्रीं आदिनाथ परमंतता नमः:” “ॐ रं श्रीं आदिनाथ परगनाय नमः”
- इसके अलावा ध्यान देने वाली बात ये है कि, मेरु त्रयोदशी के दिन के व्रत में व्रती अन्न नहीं ग्रहण कर सकते हैं। व्रत को पूरा और सिद्ध करने के लिए ज़रूरी है कि व्रती को साधु को दान देने की प्रक्रिया का पालन करना होता है। ऐसा माना जाता है कि भक्त को महीने के प्रत्येक 13 वें दिन, 13 महीने तक और अधिकतम 13 वर्षों के लिए यह उपवास करना होगा।
मेरु त्रयोदशी को जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार माना गया है। ये त्यौहार पिंगल कुमार की याद में मनाया जाता है। बताया जाता है कि, मेरु त्रयोदशी के ही दिन पिंगल कुमार ने मेरु त्रयोदशी का तप और पाँच मेरू का संकल्प पूरा किया था। इसके अलावा इसी दिन जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया था इसलिए इसे “निर्वाण-कल्याणक” का दिन भी कहा जाता है।
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मेरु त्रयोदशी व्रत में क्या करें?
- इस दिन मंदिरों में जाकर दान करने का एक विशेष महत्व है।
- इस दिन धार्मिक गीतों और कथाओं को सुनना शुभ माना जाता है।
- ऐसी धारणा है कि इस तरह से व्रत, दान, और संस्कारों का नियम पालन करने से अतीत में किये गये पापों से छुटकारा मिलता है।
- मेरु त्रयोदशी भक्त के जीवन में शांति और समृद्धि लाती है।
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