महर्षि भृगु भगवान ब्रह्मा जी के मानस पुत्र कहे जाते हैं। महर्षि भृगु सप्तर्षि मंडल के एक ऋषि हुआ करते थे। कहा जाता है कि सावन और भाद्रपद के महीने में वो भगवान सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं। एक बार की बात है, सरस्वती नदी के तट पर ऋषि- मुनि एकत्रित थे जहाँ उनका इस बात पर विवाद छिड़ गया कि ब्रह्मा जी, शिव जी और श्री हरि, इन तीनों देवताओं में से सबसे बड़े और सबसे श्रेष्ठ कौन से देवता हैं? काफी बहस के बाद भी जब इस बात का कोई निष्कर्ष नहीं निकला तो उन्होंने त्रिदेवों की परीक्षा लेने का निश्चय किया और ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि भृगु को इस काम के लिए नियुक्त किया।
महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान ब्रह्मा जी के पास गए। वहां पहुँचकर उन्होंने ना ही भगवान ब्रह्मा को प्रणाम किया और न ही उनकी स्तुति की। महर्षि भृगु का ये बर्ताव देखकर ब्रह्मा जी बहुत क्रोधित हो गए। उनको उस वक़्त इतना गुस्सा आया कि उससे उनका मुंह लाल हो गया, उनकी आंखों में अंगारे दहकने लगे, लेकिन फिर यह सोचकर कि महर्षि भृगु उनके पुत्र हैं, उन्होंने अपनी विवेक और बुद्धि से अपने गुस्से को शांत कर लिया।
यहाँ परीक्षा लेने के बाद महर्षि भृगु कैलाश गए। वहां जैसे ही भगवान महादेव ने देखा कि महर्षि भृगु उनसे मिलने आ रहे हैं तो वे बहुत प्रसन्न हो गए और अपने आसन से उठकर उनका आलिंगन करने के लिए भुजाएं फैला कर खड़े हो गए, लेकिन वहां उनकी परीक्षा लेने के इरादे से आये महर्षि भृगु मुनि ने उनका आलिंगन अस्वीकार करते हुए बोला, “महादेव! आप सदा वेदों और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। दुष्टों और पापियों को आप जो वरदान देते हैं, उनसे सृष्टि पर भयंकर संकट आ जाता है और इसलिए ही मैं आपका आलिंगन बिलकुल भी स्वीकार नहीं करूँगा।”
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महर्षि भृगु की ऐसी बात सुनकर भगवान शिव को बहुत गुस्सा आया। इसी गुस्से में उन्होंने महर्षि को मारने के लिए त्रिशूल निकाल लिया। लेकिन भगवती ने बहुत अनुनय – विनय कर किसी तरह से उनका क्रोध शांत किया। इसके बाद भगवान शिव की परीक्षा लेने के बाद भृगु मुनि वैकुण्ठ लोक गए। उस समय भगवान श्री हरि देवी लक्ष्मी के साथ क्षीरसागर में विश्राम कर रहे थे।
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महर्षि भृगु ने भगवान श्री हरी को लात क्यों मारी?
महर्षि भृगु ने वहां जाते ही भगवान विष्णु के वक्ष पर एक तेज लात मारी। लेकिन महर्षि के इस बर्ताव से भगवान विष्णु को तनिक भर भी क्रोध नहीं आया बल्कि वो जल्दी से ही अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके उनके चरण सहलाते हुए बोले, “हे भगवान! आपके पाँव में चोट तो नहीं लगी? कृपया इस आसन पर विश्राम कीजिए। भगवन! मुझे आपके शुभ आगमन का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था इसलिए मैं आपका स्वागत नहीं कर सका। आपके चरणों का स्पर्श तीर्थों को पवित्र करने वाला है। आज आपके चरण स्पर्श से मैं धन्य हो गया।”
इस बुरे बर्ताव के बाद भी भगवान विष्णु की अपने प्रति मीठी वाणी देखकर महर्षि भृगु की आंखों से आँसू बहने लगे। उसके बाद महर्षि भृगु ऋषि-मुनियों के पास वापिस लौट आए और ब्रह्मा जी, शिव जी और श्री हरि के यहां के सभी अनुभव विस्तार से सबको सुनाया।
महर्षि भृगु के अनुभव सुनकर सभी ऋषि- मुनि बहुत हैरान हुए और उन सभी के सभी संदेह भी दूर हो गए। तभी से ऋषि-मुनियों ने भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-अर्चना करना शुरू कर दी। कहा जाता है कि असल में उन ऋषि-मुनियों ने अपने लिए नहीं, बल्कि मनुष्यों के संदेहों को मिटाने के लिए ही ऐसी लीला रची थी।
इस मंत्र के साथ की जाती है भगवान विष्णु की स्तुति
शांताकारं भुजंगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगं।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभर्ध्यानगम्यं।
वंदे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।
इस मंत्र का मतलब होता है कि भगवान विष्णु शांत प्रकृति के देवता हैं। वो शेषनाग पर विश्राम करते हैं। उनकी नाभि पर कमल स्थित है, जो देवताओं स्वामी हैं, जो विश्व को धारण करने वाले हैं। भगवान का रंग बादलों की तरह श्याम होने पर वे सुंदर दिखाई देते हैं और लक्ष्मी के पति हैं। कमल के समान जिनकी आँखें हैं, जो योगियों के आराध्य हैं, ऐसे विष्णु को हम नमस्कार करते हैं। जो भव सागर से जो पार कराते हैं और भय का हरण करते हैं। जो सभी लोकों के एकमात्र स्वामी हैं।