वैदिक ज्योतिष के अनुसार किसी जातक की कुंडली में कोई भी दोष होना अच्छा नहीं माना जाता है। दोष शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। जैसा कि आप जानते हैं कि किसी भी जन्म कुंडली में कुल 12 भाव होते हैं, जो उस व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुंडली में ग्रहों की अनुकूल स्थिति जातकों के लिए फलदायी सिद्ध होती है तथा कुंडली के 12 भावों में ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति ज्योतिषीय दोषों को उत्पन्न करती है।
आपके ग्रहों की स्थिति जानने के लिए एक जन्म कुंडली बनाई जाती है, जिसके लिए आपके नाम, जन्मतिथि, जन्म का समय एवं जन्म स्थान की आवश्यकता होती है। जिसके आधार पर आपके जन्म के समय ग्रहों की स्थिति का पता लगाया जाता है।
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हानिकारक ग्रह जैसे कि शनि, राहु और मंगल जब कुंडली के कुछ विशिष्ट भावों में स्थित होते हैं तो वे कुंडली के सकारात्मक पहलुओं को प्रभावित करते हैं या नुकसान पहुंचाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप दोषों का निर्माण होता है।
आमतौर पर लोगों को अपनी कुंडली में मौजूद दोषों के बारे में पता होता है। कुछ हानिकारक ग्रह हमारी जन्म कुंडली को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि बृहस्पति जैसे लाभकारी ग्रह भी दोष का कारण बनते हैं? शुभ ग्रहों के कारण बनने वाले दोष को केन्द्राधिपति दोष कहा जाता है। आइए इस दोष के बारे में विस्तार से जानते हैं कि यह दोष हमारी जन्म कुंडली को किस प्रकार प्रभावित करता है।
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केन्द्राधिपति दोष क्या होता है?
केन्द्राधिपति दोष या केन्द्राधिपत्य दोष का निर्माण तब होता है जब बृहस्पति, शुक्र, बुध तथा शुक्ल पक्ष चंद्रमा जैसे लाभकारी ग्रह केंद्र भाव के स्वामी बन जाते हैं।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार केंद्र भावों (पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव) के स्वामी तथा त्रिकोण भावों (पहले, पांचवें और नौवें भाव) के स्वामी हमेशा शुभ परिणाम देते हैं लेकिन इस दोष के प्रभाव में केंद्रों के स्वामी नकारात्मक परिणाम देने लगते हैं।
इस दोष का प्रभाव सबसे पहले बृहस्पति और शुक्र ग्रह की प्राकृतिक विशेषताओं पर पड़ता है, उसके बाद चंद्रमा और बुध पर। बृहस्पति और शुक्र ग्रह ही इस दोष के बनने का कारण हैं लेकिन इसके निर्माण में बुध और चंद्रमा का भी योगदान होता है।
ग्रहों की ऐसी दशा में जातकों को नकारात्मक फलों की प्राप्ति होने लगती है चूंकि यह दोष केंद्र भावों के स्वामी ग्रहों की प्राकृतिक विशेषताओं को प्रभावित करता है। उदाहरण के तौर पर, बृहस्पति और शुक्र ग्रह आमतौर पर लाभकारी परिणाम प्रदान करते हैं लेकिन जब ये ग्रह इस दोष से प्रभावित होते हैं तो इनके परिणामों में नकारात्मकता देखी जाने लगती है और यह पूर्ण रूप से कुंडली में ग्रहों की स्थिति पर निर्भर करते हैं अर्थात यह ग्रह कुंडली के जिस भाव में स्थित होते हैं उसी के अनुरूप फल भी प्रदान करते हैं।
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निम्नलिखित ग्रहों के कारण जन्म कुंडली में केन्द्राधिपति दोष का प्रभाव:
- बृहस्पति- वैदिक ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति सबसे अधिक लाभकारी ग्रह है और कुंडली में इसकी दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। सामान्य रूप से बृहस्पति की कृपा जातकों के लिए फलदायी सिद्ध होती है। एक जन्मकुंडली में कुल 12 लग्न होते हैं और इन लग्नों में मिथुन और कन्या राशि पर बृहस्पति की स्थिति का प्रभाव अधिक होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि इस दोष का निर्माण बृहस्पति ग्रह द्वारा होता है, जब यह केंद्र भावों यानी कि पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव में स्थित होता है। यही बात मिथुन और कन्या राशियों पर भी लागू होती है।
उदाहरण के तौर पर मिथुन राशि के जातकों के लिए यदि बृहस्पति कन्या राशि में चौथे भाव में स्थित हो तो यह परिवार में समस्या, परिवारजनों के साथ समस्या, शिक्षा की कमी आदि का कारण बन सकता है। यदि कोई जातक मिथुन राशि में लग्न के साथ बृहस्पति की महादशा का सामना कर रहा है और बृहस्पति कन्या राशि में चौथे भाव में स्थित है तो जातक की पढ़ाई नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। यदि जातक पढ़ाई कर रहा है तो पढ़ाई में बाधाएं संभव हैं। यदि बृहस्पति सातवें भाव में स्थित हो तो संबंधों और आपसी समझ में समस्याएं आती हैं। इसी तरह यदि बृहस्पति मिथुन लग्न के लिए दसवें भाव में स्थित हो और बृहस्पति की महादशा चल रही हो तो जातक को अपने करियर में असफलताओं का सामना करना पड़ सकता है।
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- बुध– बृहस्पति के बाद बुध वह अगला ग्रह है जो केंद्राधिपति दोष से अधिक प्रभावित होता है, जब यह पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव में स्थित होता है। चूंकि पहला भाव केंद्र और त्रिकोण दोनों होता है इसलिए यह दोष पहले भाव में नहीं होगा। लेकिन जब बुध चौथे भाव में स्थित हो और लग्न धनु राशि में हो तथा चौथे भाव में हो तो शिक्षा में बाधाएं उत्पन्न होने की संभावना रहती है। यदि बुध की महादशा चल रही हो और बुध सातवें भाव में स्थित हो तो यह संबंधों को प्रभावित कर सकता है। इसी प्रकार यदि बुध दसवें भाव में स्थित हो तो यह करियर में कुछ समस्याएं खड़ी कर सकता है। जैसा कि आप जानते हैं कि बुध व्यापार का भी प्रतिनिधित्व करता है और इस मामले में बुध की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है इसलिए यदि किसी जातक की कुंडली में बुध दुर्बल अवस्था में है तो बुध की महादशा के दौरान उस जातक को अपने व्यापार में असफलताओं और नुकसान का सामना करना पड़ सकता है।
- शुक्र– बुध के बाद शुक्र वह अगला ग्रह है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पहले, चौथे, सातवें और दसवें भाव में स्थित होने पर इस दोष से प्रभावित होता है। मेष, कर्क और वृश्चिक लग्न के लोग इस दोष से अधिक प्रभावित होते हैं। यदि कोई व्यक्ति शुक्र की महादशा का सामना कर रहा हो और उसका लग्न मेष हो तो सातवें भाव में शुक्र की स्थिति उनके संबंधों में परेशानियां खड़ी कर सकती है। यदि वह ख़ुद का व्यवसाय चला रहा है तो उसे व्यवसाय से संबंधित समस्याओं से गुज़रना पड़ सकता है। उदाहरण के तौर पर, यदि कर्क लग्न वाले व्यक्ति के लिए शुक्र चौथे भाव में स्थित हो तो उस जातक को परिवार में समस्या, परिवारजनों के साथ संबंधों में समस्या तथा स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
- चंद्रमा– चंद्रमा इस दोष प्रभावित होने वाला आख़िरी ग्रह है। चंद्रमा के दो मुख्य चरण होते हैं, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। यह दोष शुक्ल पक्ष पर लागू होता है क्योंकि शुक्ल पक्ष को लाभकारी माना जाता है। उदारण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति के लिए चंद्रमा की महादशा चल रही है और उसका लग्न मेष है तो चौथे भाव में चंद्रमा की स्थिति पारिवारिक समस्याओं का कारण बन सकती है, उसकी रुचियों में कमी ला सकती है तथा परिवार के सदस्यों के साथ संबंध ख़राब कर सकती है।
नोट– केन्द्राधिपति दोष सिर्फ़ शुभ ग्रहों पर लागू होता है न कि अशुभ ग्रहों जैसे कि शनि, राहु, मंगल आदि पर चूंकि यह ग्रह पहले से ही अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आते हैं।
प्रभावी उपाय
- गुरुवार के दिन बृहस्पति ग्रह के लिए पूजा करें।
- प्रतिदिन 21 बार ‘ॐ गुरुवे नमः’ का जाप करें।
- गुरुवार के दिन व्रत करें।
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