पौराणिक काल में कैसे हुई थी कुंभ मेले की शुरुआत? जानें धार्मिक और ज्योतिषीय महत्व

कुंभ मेला हिन्दू धर्म का महापर्व है जिससे करोड़ों लोगों की आस्थाएं जुड़ी होती हैं। कुम्भ मात्र धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं है बल्कि यह हमारी महान सांस्कृतिक विरासत का बोध कराता है। कुंभ मेले का आयोजन प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल पर हरिद्वार (उत्तराखंड), इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), उज्जैन (मध्य प्रदेश) और नासिक (महाराष्ट्र) में होता है। इनमें संगम (गंगा, यमुना और सरस्वी का मिलन) तट पर यानि प्रयाग (इलाहाबाद) में लगने वाला महाकुंभ सबसे भव्य होता है। इस महापर्व में करोड़ों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं। धार्मिक मान्यता है कि कुंभ में स्नान करने से शरीर और मन के साथ-साथ हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है। वहीं 6 वर्ष बाद हरिद्वार और प्रयाग नगरी में होने वाले इस पर्व को अर्द्ध कुंभ कहते हैं। इसे माघ मेला भी कहा जाता है।

कुंभ मेले का पौराणिक इतिहास

कुंभ का आरंभ कब हुआ और इसकी शुरुआत किसने की, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास में इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन प्राचीन काल में राजा हर्षवर्धन के समय इस बात का प्रमाण अवश्य मिलता है और इसका ज़िक्र चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन से जब अमृत निकला तब देवों और असुरों के बीच उसे पाने के लिए संघर्ष होने लगा। इस दौरान अमृत की बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में जा गिरी। कहते हैं देवताओं और असुरों के मध्य यह युद्ध 12 दिनों तक चला था। पृथ्वी लोक के लिए ये 12 दिन, बारह बर्षों के समान हैं। इसलिए इन स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के बाद महाकुंभ का आयोजन होता है।

महाकुंभ का ज्योतिषीय दृष्टिकोण

पौराणिक वर्णन के अनुसार समुद्र मंथन में निकले अमृत की सुरक्षा में सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि ने अपना विशेष योगदान दिया था। इसलिए कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसके अलावा ज्योतिष में चार स्थानों में लगने वाले महाकुंभ के कारणों को भी रेखांकित गया है, जैसे कि जब कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। वहीं मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुम्भ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है। सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर महाकुंभ नासिक में होता है और सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है।

कुंभ और गंगा का संबंध

पौराणिक दृष्टिकोण से कुम्भ पर्व एवं गंगा नदी का बेजोड़ संबंध है। क्योंकि गंगा के तट पर बसे हरिद्वार और प्रयाग नगरी में महाकुंभ का आयोजन होता है। परन्तु नासिक गोमती नदी पर बसा है और इस नदी को दक्षिण की गंगा कहा जाता है। वहीं उज्जैन में क्षिप्रा नदी है जिसे उत्तरी गंगा के नाम से पहचाना जाता है।

कुंभ में गंगा स्नान का महत्व

  • कुंभ में गंगा स्नान करना अमृपान के समान माना जाता है
  • कुंभ में गंगा में डुबकी लगाना अमृत स्नान होता है
  • महाकुंभ में स्नान करने से शरीर, मन और आत्मा की शु्द्धि होती है
  • कुम्भ में स्नान करने से लोगों को पापों से मुक्ति मिलती है
  • महाकुंभ में गंगा स्नान करने से हज़ारों अश्वमेध यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है
  • कुंभ में गंगा स्नान करने से सैकड़ों वाजपेय यज्ञों के समान पुण्य प्राप्त होता है
  • कुंभ में गंगा पूजन एवं स्नान से रिद्धि-सिद्धि, यश-सम्मान की प्राप्ति होती है