हिन्दू धर्म के अंतर्गत आने वाले सभी व्रत त्यौहार को विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। उन्हीं में से एक है कलंक चतुर्थी, वैसे तो गणेश चतुर्थी के दिन को ही कलंक चतुर्थी कहा जाता है लेकिन दोनों त्यौहार एक दूसरे से संबंधित होते हुए भी काफी अलग हैं। माना जाता है कि कलंक चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दीदार करना वर्जित है। अब ऐसा क्यों माना जाता है ये जानने के लिए आपको कलंक चतुर्थी की पौराणिक कथा के बारे में जानना होगा। आइये जानते हैं क्यों मनाया जाता है ये त्यौहार, इससे जुड़ी पौराणिक कथा और गणेश चतुर्थी के साथ इसके जुड़ाव को।
कलंक चतुर्थी का महत्व
प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कलंक चतुर्थी गणेश चतुर्थी के दिन इसलिए मनाया जाता है क्योंकि एक बार चंद्र देव गणेश जी के रूप रंग पर हंस पड़े थे जिसके फलस्वरूप उन्होनें चंद्र देव को श्राप दिया की आज के दिन जो भी व्यक्ति उन्हें देखेगा उसे कलंक लगेगा। इसलिए गणेश चतुर्थी के दिन विशेष रूप से चाँद का दर्शन वर्जित माना जाता है। मान्यता है कि एक बार कृष्ण जी पर भी कलंक लग गया था जिसके बाद उन्होंने गणेश चतुर्थी के दिन गणेश जी की आराधना कर उस कलंक से मुक्ति पाया था। आपको बता दें कि कलंक चतुर्थी के दिन धोखे से चाँद का दर्शन करने के बाद उस कलंक से मुक्ति पाने के लिए कृष्ण से संबंधित पौराणिक कथा सुननी चाहिए।
कलंक चतुर्थी पौराणिक कथा
माना जाता है कि एक बार जरासंध नाम के असुर के भय से श्री कृष्ण गुजरात के समुद्र तट स्थित एक शहर में आकर रहने लगे। बाद में श्री कृष्ण ने इस नगरी को बसाया और इसका नाम द्वारिका रखा। माना जाता है कि द्वारिका में रहने वाले एक सत्राजित यादव नाम के व्यक्ति ने सूर्यदेव की कठोर उपासना करके उनसे वरदान स्वरुप आठ तोले सोने वाला स्यमन्तक मणि पाया। प्राचीन कथा के अनुसार सत्राजित को इस बात का भय हुआ की कहीं कृष्ण जी उससे वो मणि छीन ना लें इसलिए उन्होंने उसे अपने भाई प्रसेनजीत को दे दिया। एक बार प्रसेनजीत शिकार के लिए जंगल गया लेकिन खुद एक शेर का शिकार हो गया। उस शेर ने उससे वो मणि भी छीन ली, बाद में जंगल में रीछों के राजा जामवंत ने उस शेर को मारकर उससे मणि ले ली। इधर सत्राजित को ऐसा लगा की कृष्ण जी ने ही उनके भाई को मारकर वो मणि छीन ली। लिहाजा उसने कृष्ण जी के ऊपर मणि चुराने का कलंक लगाया।
कृष्ण जी को जब ये बात पता चली तो उन्होनें अपने ऊपर लगे इस कलंक को दूर करने के लिए रीछों के राजा जामवंत के पास पहुंचे। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने जामवंत से 21 दिनों तक युद्ध करने के बाद उससे वो मणि प्राप्त किया और वापिस सत्राजित को लौटा दिया। सत्राजित को अपनी कही बातों पर पछतावा हुआ और उन्होनें स्यमन्तक मणि कृष्ण जी को अपने पास रखने का अनुरोध किया। ऐसी भी मान्यता है कि इस घटना के बाद सत्राजित ने अपनी का विवाह कृष्ण जी से करवाया था।