इस बार गणेश चतुर्थी का त्यौहार आने वाले 2 सितंबर को मनाया जाएगा। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार गणेश चतुर्थी हर साल भादो माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन ही कलंक चतुर्थी का योग बनता है। इस दिन को कलंक चतुर्थी क्यों कहते हैं इसके पीछे एक ख़ास पौराणिक कथा भी है। आज हम आपको कलंक चतुर्थी के महत्व, पूजा विधि और साथ ही यदि आप गलती से चाँद का दर्शन कर लेते हैं तो उसके अशुभ प्रभाव से बचने के लिए आपको क्या उपाय करने चाहिए। आइये जानते हैं कलंक चतुर्थी से जुड़े ख़ास पहलुओं को।
कलंक चतुर्थी का महत्व
हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन चाँद के दर्शन करना वर्जित माना जाता है। कहते हैं की इस दिन चाँद का दर्शन करने वाले व्यक्ति के ऊपर कलंक लगता है। इसलिए इस दिन को कलंक चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन ही गणेश जी ने चन्द्रमा को श्राप दिया था की इस दिन जो भी चाँद के दर्शन करेगा उसे कलंक लगेगा। इसलिए इस दिन लोग चाँद के दर्शन करने से बचते हैं। माना जाता है कि चंद्र देव एक बार किसी कारण बस चतुर्थी तिथि पर गणेश जी के ऊपर हंस पड़े थे जिस वजह से गणेश जी ने उन्हें श्राप दिया था। हालाँकि शास्त्रों में इस दिन खासतौर से गलती से चाँद दर्शन के अशुभ प्रभाव से बचने के उपाय भी बताये गए हैं।
कलंक चतुर्थी पूजा विधि
जैसा की हमने आपको पहले भी बताया है कि कलंक चतुर्थी गणेश चतुर्थी के दिन ही मनाया जाता है इसलिए इस दिन विशेष रूप से गणेश जी की पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन मध्यकाल में गणेश जी की पूजा की जाती है। गणेश जी की मूर्ति स्थापित करने वाले भक्त दिन की इस अवधि में ही गणेश जी की मूर्ति घर लेकर आते हैं और विधि पूर्वक उनकी पूजा अर्चना कर उनकी मूर्ति अपने घर में स्थापित करते हैं। बता दें कि इस दिन गणेश जी की मूर्ति स्थापित करने और उनकी पूजा करने के बाद चाँद का दर्शन करना वर्जित माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखा जाता है कि गणेश पूजा के बाद चाँद के दर्शन ना करें।
कलंक चतुर्थी पर ऐसे बचें चाँद के अशुभ प्रभाव से
कलंक चतुर्थी के दिन यदि आपने गलती से चाँद के दर्शन कर लिए हैं तो इसके अशुभ प्रभाव से बचने के लिए आपको विशेष रूप से स्यमन्तक मणि कथा सुननी चाहिए। आइए जानते हैं क्या है ये पौराणिक कथा।
बता दें कि कथा भगवान् श्री कृष्ण से जुड़ी है। माना जाता है कि श्री कृष्ण द्वारा बसाये गए द्वारिका नगरी में एक सत्रजित नाम का व्यक्ति रहता था जिसने सूर्यदेव की उपासना कर बेहद प्रभावशाली स्यमन्तक मणि प्राप्त किया था। उसे अक्सर इस बात का डर सताता था की कहीं भगवान् श्री कृष्ण उससे वो मणि छीन ना लें। इस डर से उसने वो मणि अपने भाई प्रसेन को दे दी। एक बार प्रसेन जंगल में शिकार पर गया लेकिन शेर ने उल्टा उसे ही अपना शिकार बन लिया और वो मणि भी शेर के पास ही चली गयी। उस शेर से वो मणि जाम्बवान नाम के एक व्यक्ति ने हासिल कर ली। लेकिन सत्रजित ने श्री कृष्ण के ऊपर ये कलंक लगाया की उन्होनें वो मणि पाने के लिए उसके भाई को मार डाला। बाद में इस कलंक से मुक्त होने के लिए श्री कृष्ण ने जाम्बवान से युद्ध कर वो मणि वपिस पाया और सत्रजित को दिया लेकिन उसने उसे पुनः कृष्ण जी को ही वपिस कर दिया।
शास्त्रों में ऐसा लिखा है की कलंक चतर्थी के दिन इस कथा को सुनने से चाँद के दर्शन के अशुभ प्रभाव और लगने वाले कलंक से बचा जा सकता है।