उत्तराखंड, जिसके लिए कहा जाता है कि यदि देवताओं ने कहीं अपना निवास बनाया तो वह यही स्थान है। इसलिए इसे देवताओं की भूमि या देवभूमि के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड देश की उन कुछ खुबसूरत जगहों में से है जो अपनी विविध, नैसर्गिक और अद्भुत सौंदर्य की वजह से न केवल भारत बल्कि दुनियाभर से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। उत्तराखंड को शांत वातावरण, मनमोहक दृश्यों और खूबसूरती की वजह से धरती का स्वर्ग कहा जाता है। यहाँ आकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रकृति अपने जीवंत आकर्षित स्वरुप में साक्षात् खड़ी हो। फ़िर चाहे वो गगनचुम्बी पर्वत हो, मीलों तक फैली हुई घाटियां या फ़िर कल कल की मधुर ध्वनि करती नदियों का बहता पानी।
देवभूमि उत्तराखंड में जितनी भिन्नता यहाँ की ज़मीन और सौंदर्य में है उतनी ही समृद्ध है यहाँ की लोक परम्पराएँ और लोगों का रहन-सहन। उत्तराखंड में लोग आज भी अपने साधारण वेशभूषा, खानपान और रहन-सहन का पालन करते हुए प्रकृति की रक्षा करना और यहाँ की सम्पन्नता को बढ़ाना अपना सर्वोपरि धर्म समझते हैं।
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आज के इस लेख में मैं आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही लोकप्रिय लोकपर्व “हरेला” के बारे में बताने जा रही हूँ।
हरेला कब और कहाँ मनाया जाता है?
मुख्यतः उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में इस त्यौहार को मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है क्योंकि यह प्रकृति, कृषि और पशुपालन से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है। हरेला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के सबसे शुभ त्योहारों में से एक है, जो श्रावण (कर्क संक्रांति) के पहले दिन मनाया जाता है, जो इस बार 16 जुलाई, 2022 को है। हरेला का शाब्दिक अर्थ हरियाली होता है। ऐसा माना जाता है कि यह मानसून की शुरुआत और फसलों की बुवाई के मौसम की शुरुआत के प्रतीक की तरह मनाया जाता है। यह त्यौहार विशेष रूप से कृषि और कृषि आधारित वर्गों द्वारा एक समृद्ध फसल वर्ष के लिए बहुत उत्साह व उमंग के साथ मनाया जाता है।
हरेला का पर्व नई ऋतु के आगमन का प्रतीक होता है। उत्तराखंड में मुख्यतः तीन ही ऋतुएं – शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। हरेला का त्यौहार साल में तीन बार श्रावण माह, आश्विन माह और चैत्र माह में मनाया जाता है।
उत्तराखंड में बहुत सी धार्मिक मान्यताएं हैं जिसकी वजह से इसे भगवान भोले की नगरी भी माना जाता है और उन्हें सावन का महिना विशेषकर प्रिय है यही कारण है की श्रावण माह के इस हरेला का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इस दिन शिव परिवार की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा की जाती है।
हरेला कैसे मनाया जाता है?
कर्क संक्रांति से लगभग 9 दिन पहले, घरों के अन्दर मंदिर में या गाँव के मंदिर में सात प्रकार के अन्न गेहूं, मक्का, सरसों, गहत, जौ, उड़द और भट्ट को मिट्टी के पात्र में रोपित किया जाता है। बर्तन को धूप से दूर एक अंधेरे में रखा जाता है।
पहले बर्तन में मिट्टी की परत बिछाई जाती है, फ़िर उसमे बीज डाले जाते है। उसके बाद फ़िर दुबारा मिट्टी डाल के बीज डाले जाते है। इस प्रक्रिया को 5-6 बार दोहराया जाता है। इन बीजों को दिन में दो या तीन बार पानी पिलाया जाता है। बोए गए बीजों की संख्या परिवार के सदस्यों की संख्या पर आधारित होती है। बीजों की संख्या या तो परिवार के सदस्यों की संख्या के बराबर या उससे अधिक होनी चाहिए।
नौवें दिन इसकी गुड़ाई-निराई की जाती है और दसवें दिन कटाई की जाती है। काटने के बाद घर के स्वामी इसको तिलक, चन्दन और अक्षत से अभिमंत्रित करते है। कटाई के बाद हरेला को पूजनीय देवताओं को अर्पित किया जाता है और फ़िर हरेला को परिवार के प्रत्येक सदस्य के कानों के पीछे रखा जाता है।
इस दिन भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवान जैसे पूरी, कचौरी, बड़ा और पूवा जैसे स्वादिष्ट भोजन तैयार किए जाते हैं और धार्मिक समारोह किए जाते हैं।
यदि हरेले के दिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए तो हरेला तब तक नहीं मनाया जाता जब तक हरेले के ही दिन परिवार में किसी बच्चे का जन्म ना हो जाए। उत्तराखंड में लोग पशुओं को अपने परिवार का एक अभिन्न अंग मानते हैं इसलिए यदि इस दिन किसी गाय का बच्चा जन्म लेता है तो भी इस त्यौहार को फ़िर से मनाना शुरू कर दिया जाता है।
हरेला का महत्व
हरेला घर की सुख शांति के बोया और काटा जाता है। यह अच्छी कृषि का सूचक होता है और इसी उम्मीद के साथ लगाया जाता है कि किसानों की फसलों को किसी भी प्रकार का नुकसान न हो। मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसे फसल में उतना ही ज्यादा फायदा होगा।
कहा जाता है कि यदि हरेले की दिन किसी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित किया जाए तो 5 -7 दिनों में उसमें जड़े निकलने लगती है और वह वृक्ष बन कर लम्बे समय तक जीवित रहता है।
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