गोवत्स्व द्वादशी व्रत: इस दिन गाय और बछड़े की पूजा करने से मिलता है फल

कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली द्वादशी को गोवत्स द्वादशी के नाम से जाना जाता है। देश में कई जगहों पर इसे बछ बारस का पर्व भी कहते हैं। गुजरात में इस दिन को वाघ बरस के नाम से जाना जाता है। यह पर्व एकादशी के बाद आता है।  गोवत्स द्वादशी के दिन गाय माता और बछड़े की पूजा किए जाने का विधान बताया गया है।

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गोवत्स द्वादशी इस वर्ष

12 नवम्बर 2020, गुरूवार 

प्रदोषकाल गोवत्स द्वादशी मुहूर्त – 05 बजकर 28 मिनट  (शाम) से 08 बजकर 07 मिनट (शाम)

अवधि : कुल 02 घण्टे 39 मिनट्स

द्वादशी तिथि प्रारम्भ – नवम्बर 12, 2020 को 12 बजकर 40 मिनट (सुबह)
द्वादशी तिथि समाप्त – नवम्बर 12, 2020 को 09 बजकर 30 मिनट (शाम)

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इस दिन की पूजा गोधूलि बेला में की जाती है। यानी कि उस समय जब सूर्य देवता पूरी तरह से ना निकले हो। इस दिन महिलाएं व्रत रखती हैं, खास तौर पर वह महिलाएं जिन्हें पुत्र प्राप्ति की इच्छा होती है। पुत्र प्राप्ति की चाह रखने वाली महिलाओं के लिए यह व्रत बेहद शुभ और फलदायी बताया गया है।

गोवत्स द्वादशी व्रत महत्व 

यह व्रत महिलाओं द्वारा पुत्रों की मंगल कामना, उनकी अच्छी सेहत और पुत्र प्राप्ति के लिए किए जाने वाला व्रत है। इस दिन महिलाएं गीली मिट्टी की गाय, बछड़ा, बाघ, बाघिन इत्यादि की मूर्तियां बनाकर एक स्थान पर रखती हैं और फिर उसकी विधिवत पूजा करती हैं। 

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गोवत्स द्वादशी व्रत-पूजन विधि 

  • इस दिन का व्रत निराहार रखा जाता है। 
  • इस दिन महिलाएं अपने घर के आंगन को लीप कर फिर रंगोली बनाती हैं, और उसी रंगोली में मिट्टी की गाय खड़ी करके उस पर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, इत्यादि से विधिवत पूजा शुरु करती हैं। 
  • इस दिन की पूजा में इस बात का खास ख्याल रखना चाहिए कि इस में धान व चावल गलती से भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। 
  • इस दिन की पूजा के लिए आप काकून का चावल इस्तेमाल में ला सकते हैं। 
  • गोवत्स द्वादशी के दिन खाने में चने की दाल जरूर बनाई जाती है। जो महिलाएं व्रत रखती हैं  वह इस दिन गेहूं, चावल, यानी इस तरह के कोई भी अनाज ग्रहण नहीं कर सकती हैं। इसके अलावा दूध और दूध से बनी चीजें भी इस दिन व्रती महिलाएं नहीं खा सकती हैं। 

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गौ पूजन का महत्व 

हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गौ माता को सभी तीर्थों से ऊपर का दर्जा दिया गया है। इसके अलावा हिन्दू धर्म में गौमाता को मां का दर्जा प्राप्त है, जिनकी बराबरी ना ही कोई देवी-देवता कर सकते हैं और ना ही कोई तीर्थ धाम।  ऐसे में मान्यता है कि गौ माता के दर्शन मात्र से इंसान को ऐसे ऐसे पुण्य प्राप्त हो सकते हैं जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान व पुण्य कर्मों से भी प्राप्त नहीं होते हैं। इंसानों के बीच ऐसी भी मान्यता है कि अगर इंसान सभी देवी देवताओं और अपने पितरों को एक साथ खुश करना चाहता हैं तो उसके लिए गौ भक्ति या गौ सेवा से बड़ा कोई अनुष्ठान नहीं हो सकता है।

गौमाता को खिलाया गया चारा सीधा सभी देवी देवताओं तक अपने आप ही पहुंच जाता है। बच बारस या गोवत्स द्वादशी के दिन महिलाएं अपने बेटों की सलामती उनकी लंबी उम्र अपने परिवार की खुशहाली और कुछ महिलाएं पुत्र प्राप्ति के लिए इस दिन को धूमधाम से मनाती हैं। इस दिन घरों में बाजरे की रोटी और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाए जाने की परंपरा है। इसके अलावा इस दिन गाय के दूध की जगह भैंसे या बकरी का दूध उपयोग में लाया जाता है।

गोवत्स द्वादशी का यह व्रत कार्तिक माह, वैशाख और श्रावण महीनों की कृष्ण द्वादशी के दिन पड़ता है। कार्तिक में वत्स वंश की पूजा का विधान बताया गया है। ऐसे में इस दिन के लिए मूंग और बाजरा इत्यादि अंकुरित किए जाते हैं। इसके बाद शाम के समय बछड़े को विशेष तौर पर सजाया जाता है। इस दिन व्रत करने वालों को भी यही अन्य खाने पड़ते हैं। 

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गोवत्स द्वादशी व्रत कथा

प्राचीन समय में सुवर्णपुर नाम का एक राज्य हुआ करता था। इस राज्य के राजा थे देवदानी। उसके पास एक गाय, एक बछड़ा और एक भैंस हुआ करती थी। राजा की दो रानियाँ थी। एक रानी का नाम था सीता और एक का नाम था गीता। जहां सीता को भैंस अधिक प्यारी थी वही गीता गाय और बछड़े से ज्यादा प्रेम करती थी। 

एक दिन भैंस अपनी रानी सीता से कहती है कि गीता रानी गाय और बछड़ा होने से मुझे प्रेम नहीं करती है। सीता ने भैंस की बात सुनी और उससे कहा तुम परेशान मत हो मैं सब ठीक कर दूंगी और उसके बाद सीता ने गाय के बछड़े को काटकर गेहूं के ढेर में गाड़ दिया। काफी समय तक इस बात का पता किसी को नहीं चल पाया, लेकिन जैसे ही राजा भोजन करने बैठा वैसे ही मांस की बारिश होने लगी। महल में चारों तरफ सिर्फ मां के चिथड़े और खून दिखाई देने लगे। थाली में रखा सारा भोजन मल और मूत्र में बदल गया यह सब देखकर किसी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है? और राजा को चिंता होने लगी। 

तभी आकाशवाणी हुई कि, ‘हे राजा! तुम्हारी रानी सीता ने गाय के बछड़े को मारकर गेंहू के ढेर में छुपा दिया है। अब इसी की वजह से यह सब अनर्थ हो रहा है।’ हैरान-परेशान राजा ने जवाब दिया कि, ‘मैं पाप का प्रायश्चित कैसे करूं?’ तब दोबारा आकाशवाणी हुई कि, ‘कल गोवत्स द्वादशी है। इस दिन भैंस को बाहर निकालकर तुम गाय और बछड़े की पूजा करो। कटे हुए फल और दूध का सेवन बिलकुल मत करना इससे तुम्हारे पाप खत्म हो जाएंगे और बछड़ा भी जीवित हो जाएगा।’ 

अगले दिन जब शाम हुई तो गाय के घर आते ही राजा ने विधिवत तरीके से उसकी पूजा की,सच्चे मन से बछड़े को याद किया। जैसे ही यह सब हुआ बछड़ा गेंहू के ढेर से बाहर निकल कर आ कर गाय के पास खड़ा हो गया। यह सब देखकर सभी को बेहद प्रसन्नता हुई। उसी समय से राज्य में सभी को गोवत्स द्वादशी का व्रत करने का आदेश दे दिया गया।

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