पौराणिक कहानियों में हमेशा श्री नारद मुनि का उल्लेख पढ़ने व सुनने को मिलता है। माना जाता है कि वो बड़े ही तपस्वी और ज्ञानी ऋषि थे जिनके ज्ञान और तप से माता पार्वती भी प्रभावित थीं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिनके ज्ञान की तारीफ़ स्वंय माता पार्वती ने की थी उन नारद जी को भी अहंकार (घमंड) के कारण एक बार बंदर बनना पड़ा था।
जब भगवान विष्णु के कारण नारद जी को बनना पड़ा था बंदर
पौराणिक कथा के अनुसार माना जाता है कि एक बार नारद जी कामदेव को प्रसन्न करने हेतु तपस्या कर रहे थे तब कोई भी उनकी तपस्या भंग नहीं कर पाया। तब वो अपनी तपस्या सफल होने की जानकारी देने सबसे पहले अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए। उसके बाद नारद जी ने इस संदर्भ में भगवान शंकर को भी बताया।
नारद जी की बात सुनकर भगवान शंकर को लगने लगा कि उन्हें अपनी तपस्या पर घमंड हो गया है। तब उन्होंने देवर्षि नारद को तपस्या की जानकारी भगवान विष्णु को देने से मना कर दिया। लेकिन भोलेनाथ के मना करने के बावजूद भी नारद जी भगवान विष्णु के पास पहुंचे। नारद जी द्वारा तपस्या की जानकारी मिलने पर भगवान विष्णु को लगने लगा कि नारद जी को कामदेव को जीतने का अहंकार हो गया है और उन्होंने नारद जी का घमंड तोड़ने के लिए एक योजना बनाई।
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विश्वमोहिनी के रूप में माता लक्ष्मी के रूप से मोहित हुए नारद जी
अपनी योजना के अनुसार देवर्षि नारद का अहंकार तोड़ने के लिए भगवान विष्णु ने माता लक्ष्मी को राजकुमारी विश्वमोहिनी का रूप धारण करने का आदेश दिया। इस दौरान नारदी जी को जाते हुए अपने रास्ते में एक बड़ा राज्य दिखाई दिया। उस राज्य में बड़ी धूम-धाम से कोई समारोह मनाया जा रहा था। पता करने पर ज्ञात हुआ कि वहां के राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का स्वयंवर रचाया था, जिसके लिए ही समारोह रखा गया था। स्वयंवर की जानकारी मिलने पर नारद जी भी वहां पहुंचे, जहाँ उनका भव्य आदर- सत्कार हुआ। राजकुमारी विश्वमोहिनी के रूप और गुण को देख नारद जी उनसे मोहित हो गए। उसके बाद राजा ने ऋषि नारद जी से अपनी पुत्री का भविष्य पूछा। इस पर देवर्षि ने कहा कि विश्वमोहिनी का पति काफी भाग्यशाली और त्रिलोक का स्वामी होगा।
विष्णु जी ने बनाया नारद जी का वानर मुख
समारोह के बीच से ही नारद जी निकलकर सीधा भगवान विष्णु के पास अपनी प्रार्थना लेकर पहुंचे कि उन्हें भी ऐसा सुंदर रूप प्रदान किया जाए जिससे मोहित होकर राजकुमारी विश्वमोहिनी स्वयंबर में उनका वरण कर ले। जिसके उपरांत भगवान विष्णु ने देवर्षि का मुख बंदर का बना दिया और शरीर मनुष्य का ही छोड़ दिया। अपने साथ मज़ाक का आभास नारद जी को नहीं हुआ और वो सीधा शीलनिधि के दरबार में वापस पहुंचे। दरबार में पहुँचते ही नारद जी राजकुमारी विश्वमोहिनी के सामने जाकर खड़े हुए ताकि वो उन्हें पसंद कर उनके गले में वह वरमाला डाल दे।
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समारोह में भगवान शिव के दो गण भी मौजूद थे। जब उन्होंने नारद जी को बंदर रूप में देखा तो वे दोनों उनका उपहास करते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। सागर तल से भगवान विष्णु सारा दृश्य स्वयं देख रहे थे, तभी वो समारोह में प्रकट हुए। भगवान विष्णु को अपने समक्ष देखकर विश्वमोहिनी रूपी माता लक्ष्मी ने उनके गले में वरमाला डाल दी और फिर भगवान विष्णु विश्वमोहिनी को लेकर चले गए।
नारद जी ने दिया भगवान विष्णु को श्राप
ये सब कुछ देखकर देवर्षि नारद बहुत आश्चर्य चकित हुए। तब जाकर शिवगणों ने उनको अपना मुख दर्पण में देखने को कहा। दर्पण में अपना मुख बंदर का देखकर नारद जी को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने तुरंत क्रोध में भगवान विष्णु को श्राप दे डाला कि “तू भी पत्नी के वियोग में इधर-उधर भटकेगा और यही बंदर तेरी सहायता करेंगे।”
इसके बाद भगवान विष्णु ने नारद जी से अपनी माया हटा ली और माया जाल के हटते ही नारद जी महाप्रभु चैतन्य हो गए और उन्हें अपने द्वारा दिए गए श्राप पर बहुत शर्मिंदगी हुई। उसके बाद भगवान विष्णु ने नारद जी से इस मज़ाक की माफ़ी मांगते हुए उनका श्राप सत्य होने का उन्हें वचन दिया। माना जाता है कि नारद जी द्वारा दिए गए इसी श्राप के चलते ही त्रेतायुग में विष्णु अवतार भगवान राम को अपनी पत्नी सीता के वियोग में वर्षों तक जंगल-जंगल भटकना पड़ा था, जिनकी मदद वानर मुख वाले भगवान हनुमान ने की थी।