मंदिरों और धार्मिक स्थलों से आम जान की आस्था और विश्वास का बहुत मज़बूत तार जुड़ा ही होता है। किसी मंदिर की कोई ख़ासियत होती है तो किसी मंदिर की कुछ और। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि यह मंदिर हमारे देश के बीएसएफ़ के जवानों के लिए आस्था का केंद्र है। यहाँ हम जिस मंदिर के बारे में बात कर रहे हैं उसका नाम नाडेश्वरी माता का मंदिर है जो की बनासकांठा में स्थित है।
इस मंदिर के बारे में यहाँ के लोग बताते हैं कि जब भी किसी जवान की ड्यूटी बनासकांठा बार्डर पर की जाती है तो वो सिपाही ड्यूटी पर जाने से पहले इस मंदिर में माथा टेकने ज़रूर आता है। ऐसी मान्यता है कि मां नाडेश्वरी खुद यहां जवानों की जिंदगी की रक्षा करती हैं। बताया जाता है कि यहाँ पहले कोई मंदिर नहीं हुआ करता था बस एक छोटा सा देवी माँ का स्थान था लेकिन फिर 1971 के युद्ध के बाद उस वक्त के कमान्डेंट ने इस मंदिर का निर्माण कराया.
BSF जवान ही करते हैं इस मंदिर की निगरानी
इस मंदिर की सबसे खास बात यह बताई जाती है कि इस मंदिर में पुजारी के तौर पर बीएसएफ़ का ही एक जवान अपनी ड्यूटी करता है। बनासकांठा का सुई गांव भारत-पाकिस्तान बार्डर पर आखिरी गांव है जहां यह मंदिर स्थित है. इस मंदिर से महज 20 किलोमीटर की दूरी पर ही पाकिस्तान की सीमा शुरू हो जाती है इसलिए यह क्षेत्र हमेशा बीएसएफ़ के जवानों की निगरानी में ही रहता है।
इस मंदिर के निर्माण की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. बताया जाता है कि 1971 में जब भारत-पाकिस्तान का युद्ध हो रहा था तब इस लड़ाई के वक्त भारतीय सेना की एक टुकड़ी पाकिस्तान की सीमा में घुस गयी थी। इसके बाद भारतीय सेना की वो टुकड़ी अपना रास्ता भटक गई क्योंकि रन का इलाक़ा होने की वजह से उन्हें रास्ता मिल ही नहीं पा रहा था।
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माता रानी ने सभी जवानों को श-कुशल भारत पहुँचाया था
उस वक़्त खुद कमान्डेंट ने मां नाडेश्वरी से मदद की गुहार लगाई और माता से सकुशल अपने वतन पहुंचाने की विनती की। जवानों की ये विनती सुनकर खुद मां ने दिये की रोशनी के माध्यम से भारतीय सेना की टुकड़ी की मदद की और उन्हें वापस अपने बेस कैंप तक पहुंचा दिया। कहा जाता है कि इस दौरान माता रानी ने किसी भी जवान को एक खरोंच तक नहीं आने दी। तब से ही जवानों के बीच ऐसी मान्यता है कि जबतक इस बार्डर पर मां नाडेश्वरी देवी विराजमान हैं तब तक किसी भी जवान को कुछ नहीं हो सकता.
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इस मंदिर के ट्रस्टी खेंगाभाई सोलंकी का कहना है कि, साल 1971 में जब जवान अपना रास्ता भटक गए थे और पाकिस्तान की सीमा में पहुँच गए थे, तब खुद मां ने ही उन्हें रास्ता दिखाया था, तब से यहां पर आने वाले हर एक जवान के लिए मां आस्था और श्रद्धा का सब से बड़ा केंद्र बना हुआ है।