भगवान विष्णु के तीसरे अवतार के जन्मोत्सव में रूप में हर वर्ष वराह जयंती का पर्व देशभर में हर्षोउल्लास के साथ मनाए जाने का विधान है। माना जाता है कि जिस वक़्त पृथ्वी लोक पर पापियों का पाप बढ़ चला था तो समस्त मनुष्यों को उस बुराई से बचाने के लिए ही भगवान विष्णु को सूअर का रूप धारण करना पड़ा था, जिसे भगवान का वराह रूप कहा गया।
बुराई पर अच्छाई का प्रतीक भगवान का वराह स्वरूप वराह जयंती के रुप में मनाया जाता है, जिस दौरान पूर्व संध्या पर लोग कई तरह के पूजा-अनुष्ठान आयोजित करते हुए भगवान विष्णु को अपनी श्रद्धा समर्पित करते हैं। इसके बाद भगवान के भक्त भगवान विष्णु के इस रूप की पूजा इस पर्व के दूसरे दिन यानी शुक्ला पक्ष के माघ महीने में या द्वितिया तिथि में की जाती है। इस दिन श्रद्धालु भगवान विष्णु के मंदिरों में जाकर उनसे आशीर्वाद पाने की कामना करते हुए भगवान के सभी अवतारों को पूजते हैं।
वराह जयंती कब है?
हिंदू पंचांग अनुसार, वराह जयंती भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन मनाई जाने का विधान है। ऐसी में इस वर्ष 2019 में वराह जयंती का पर्व 1 सितंबर यानी रविवार के दिन आयोजित किया जाएगा। वहीं अंग्रेजी कैलेंडर की बात करें तो ये पर्व अगस्त या सितंबर के महीने में आता है।
वराह जयंती का महत्व
इस पर्व का महत्व आपको हिंदू पौराणिक शास्त्रों में विशेष रूप में मिल जाएगा। इसको लेकर मान्यता है कि जो भी व्यक्ति वराह जयंती के दिन भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करता है, उस जातक को भगवान की कृपा से आर्थिक मदद के साथ-साथ सुख-समृद्धि की प्राप्ति भी होती है। भगवान विष्णु ने वराह अवतार में जन्म लेते हुए आधे मानव और आधे सूअर के रूप में पृथ्वी लोक से दानवों के आतंक को खत्म करते किया और उनका नाश कर उनपर विजय प्राप्त की थी। इस दौरान भगवान विष्णु को हिरण्यक्ष से युद्ध करना पड़ा था, जिसमें उन्होंने हिरण्यक्ष को हराते हुए उसका वध कर दिया था। जिस दिन भगवान विष्णु ने वराह अवतार में जन्म लिया था उस दिन भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि ही थी। इसलिए, माना जाता है कि तभी से ये तिथि वराह जयंती के नाम से देशभर में उत्सव के रूप में मनाई जाने लगी। इस पर्व पर भगवान के भक्त विष्णु जी के वराह रूप की पूजा करते हुए उनसे अपने जीवन से सभी प्रकार की बुराइयों को नष्ट करने का आशीर्वाद मांगते हैं।
वराह जयंती पर किये जाने वाले पूजा-अनुष्ठान
यूँ तो देशभर में ये पर्व मनाया जाता है, लेकिन वराह जयंती का पर्व मुख्य रूप से दक्षिण भारत के राज्यों में बेहद धूमधाम से मनाए जाने का विधान है।
- इस दिन लोग सुबह उठकर पवित्र स्नान-ध्यान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहनकर मंदिर या पूजा स्थान पर जाते हैं।
- इसके बाद पूजा स्थान की भी साफ़-सफाई की जाती है और इसके बाद ही पूजा के अनुष्ठानों की प्रक्रिया शुरू होती है।
- पूजा स्थल पर सफाई के बाद वहां साफ़ पीला या लाल वस्त्र बिछाया जाता है।
- इसके बाद भगवान विष्णु या भगवान वराह की मूर्ति को गंगाजल का छिड़काव कर शुद्ध करने के बाद उसे एक पवित्र धातु के बर्तन (कलाश) में रख दिया जाता है।
- इसके बाद भगवान विष्णु के समक्ष उपवास का संकल्प किया जाता है।
- फिर उस कलश पर नारियल को आम की पत्तियों पर रखकर कलश को साफ़ पानी से भरा जाता है।
- इसके बाद भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा होती है। इस दौरान भक्त भगवान विष्णु की आरती कर उनके भजन का जप करते हैं। इस दौरान कई लोग श्रीमद्भगवद् कथा का भी आयोजन कराते हैं।
- पूजा के बाद ये सभी सामग्री को किसी ब्राह्मण को दान में दिया जाता है।
- वराह जयंती का उपवास करने वाले भक्तों को इस दिन पूर्व संध्या पर ज़रूरतमंद लोगों और ब्राह्मणों को कपड़े और दान-दक्षिणा ज़रूर देनी चाहिए। क्योंकि माना जाता है कि इस दिन ज़रूरतमंदों को ज़रूरत की चीज़े देने से भगवान विष्णु के आशीर्वाद को प्राप्त किया जा सकता है।
इन प्रसिद्ध मंदिरों में उत्सव की तरह मनाया जाता है वराह जयंती पर्व
जैसा हमने पहले ही बताया कि वराह जयंती का पर्व यूँ तो देशभर में हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है। लेकिन देशभर के कई हिस्सों में इस दिन को लेकर भव्य कार्यक्रमों और मेलों का आयोजन भी किया जाता है। जैसे:-
- मथुरा में स्थिति भगवान वराह का प्राचीन मंदिर, जहां हर वर्ष इस पर्व का उत्सव एक भव्य आयोजन के रूप में मनाया जाता है।
- वराह जयंती पर्व की धूम तिरुमाला में स्थित भु-वराह स्वामी मंदिर में भी कई दिन पहले से देखने को मिल जाती है। इस मंदिर में इस पर्व की पूर्व संध्या पर, देवता की मूर्तियों का भव्य अनोखा अभिषेक किया जाता है। जिसमें विशेष रूप से नारियल के पानी, दूध, शहद, मक्खन और घी का प्रयोग कर भगवान का अभिषेक और उनकी पूजा की जाती है।
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वराह जयंती उत्सव की पौराणिक कथा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, दिती की कोख से जन्में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष नाम के दो अत्यधिक शक्तिशाली राक्षस बेहद दुष्ट थे। जिन्होंने भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनसे वरदान की कामना के लिए कठोर तप और उनका वर्षों तक पूजन किया। जिसके परिणामस्वरूप भगवान ब्रह्मा उनसे प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान के रूप में उनके द्वारा मांगी गई वो सभी असीमित शक्तियां दे दी। ब्रह्मा जी द्वारा वरदान पाकर वो बेहद शक्तिशाली हो गया, जिन्हे कोई भी पराजित नहीं कर सकता था।
भगवान ब्रह्मा से वरदान पाकर और मृत्यु के भय से मुक्त होने के बाद दोनों अहंकार की अग्नि में जलने लगे। इस दौरान उन्होंने स्वर्ग लोक और पृथ्वी लोक पर सभी देवताओं और मनुष्यों को परेशान करना शुरू कर दिया।
अपने अत्याचारों से उन दोनों ने तीनों लोकों पर कब्ज़ा कर लिया था। जिसके बाद अब उनकी नज़र भगवान वरुण के राज्य पर पड़ी, जिसे ‘विभारी नागरी’ कहा जाता था, जिसके स्वयं भगवान विष्णु संरक्षक और निर्माता थे। वरुण देव के लाख समझाने के बाद भी हिरण्याक्ष नहीं माना और उसने वहां भी कब्ज़ा कर लिया।
जिसके बाद समस्त देवी-देवता इस समस्या के निवारण के लिए भगवान विष्णु के पास अपनी विनती लेकर पहुंचे। इसके बाद ही भगवान विष्णु ने भगवान वराह के रूप में पुनर्जन्म लिया और उसी रूप में राक्षस हिरण्याक्ष को पराजित कर उसका वध कर दिया। तभी से भगवान वराह की पूजा और वराह जयंती पर उपवास करने की परंपरा का शुभारंभ हुआ।
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